ऐ पूँजीपति कवियों!

क्या तुम्हारी महँगी-महँगी
और ब्राण्डेड डायरियों में
ज़रा जगह नहीं
लिखने को
उनका नाम भी

जिनकी समूची देह से अंग-अंग से
लहू, पसीना, स्वेद-रक्त और आँसू
पूरी तरह से,
बुरी तरह से दूहे जा चुके हैं

और जिनकी देह, देह नहीं रह गई है अब
जिनके नेत्र, नेत्र नहीं रह गए हैं अब
जिनका मस्तक, मस्तक नहीं रह गया है अब
जिनके हाथ, हाथ नहीं रह गए हैं अब
जिनके पाँव, पाँव नहीं रह गए हैं अब
जिनके दाँत, दाँत नहीं रह गए हैं अब
जिनकी छाती, छाती नहीं रह गई है अब
जिनकी छाती की बाती-बाती
रूई की तरह धुनी जा चुकी है

जिनका पूरा शरीर
श्रम के लोहाें की मसलन से,
भय़ावह चिन्ता, रोग, भूख, घोर दुख की जलन से
खेतों में खटते हुए चुपचाप शहीदों जैसे मरण से
अब बचा है कृषकाय
मुट्ठी भर

उनके लिए
क्या तुम्हारी क़ीमती क़लमों को लिखने का
टैम नहीं है

चिकन-बिरयानी खाकर भी
लिखने की थोड़ी सी भी शक्ति नहीं बची है
आत्मा में

तुम सिगरेट और शराब पीने के बाद भी
लिखने के मूड में नहीं हो
या फुर्सत नहीं है प्रेमिकाओं के बारे में लिखने से

तो कहो न, साहब जी !
मैं अपनी देह में बचा लहू का आख़िरी कतरा भी
दे दूँगा तुम्‍हें
तुम्हारी कलम के रिफिल में लाल स्याही के लिए !

फिर एक बार

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