रॉबर्ट  ब्लॉच ने सन 1959 में मनोवैज्ञानिक थ्रिलर उपन्यास साइको (Psycho) लिखा था, जो आश्चर्यजनक ढंग से उसी दौरान या उपन्यास लेखन के बाद अमेरिका में घटी कुछ मल्टी पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर या डिसोसियेटिव पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर या हिन्दी में बहु व्यक्तित्व असामान्यता अथवा खंडित व्यक्तित्व असमानता की घटनाओं पर आधारित था। सुप्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्म निर्देशक अल्फ्रेड हिचकॉक इस उपन्यास से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इसकी सारी प्रतियाँ खरीदकर रख लीं ताकि कोई इसका अंत न जान सके और अगले साल ही सन 1960 में इसी नाम से फिल्म लेकर आये जो अत्यधिक सफल रही। इसका हिन्दी अनुवाद आदरणीय एटी जाकिर A.T. Zakir जी ने सन 1972 में किया था जो उस समय हिन्दी के पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था। इसका चतुर्थ संस्करण अभी हाल ही में निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा Nikhil Prakashan से प्रकाशित हुआ है। इस संस्करण में मैंने भी एक समीक्षात्मक टिप्पणी ‘नार्मन बेट्स की माँ बनाम माँ का नार्मन बेट्स’ से दी थी।
इसके बाद हॉलीवुड में मल्टी पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर या डिसोसियेटिव पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर पर ढेरों फिल्में बनीं, जैसे – स्प्लिट, सिबिल, द थ्री फेसेज़ ऑफ इव, आइडेंटिटी, ग्लास, साइको पार्ट टू, फाइट क्लब आदि। हिन्दी में भी इस विषय पर मेरी जानकारी में सन 2002 में अजय देवगन, उर्मिला मातोंडकर और अक्षय खन्ना अभिनीत एकमात्र फिल्म दीवानगी आई थी और काफी सराही गई थी। इसके बाद इस विषय पर अमेज़न प्राइम वीडियो पर विगत दस जुलाई को ब्रेथ सीरीज का दूसरा भाग ब्रेथ इन टू द शैडोज़ रिलीज़ हुआ है। इसका पहला भाग मानव अंगों की तस्करी से जुड़ा हुआ था और इसमें मनोचिकित्सकीय रोग को अत्यन्त रोचक ढंग से उभारा गया है।
यह सीरीज 12 एपिसोड में विभक्त है और थ्रिल, रोमांच एवं सस्पेंस को काफ़ी हद तक बरकरार रखती है। एक मनोचिकित्सक अविनाश सभरवाल और उनकी शेफ पत्नी आभा की छह वर्षीय बेटी सिया के अपहरण और उसके बाद अपहर्ता की खोज के लिए पुलिस अधिकारी कबीर सावंत एवं उसकी टीम द्वारा सुराग के लिए की जा रही कोशिशों पर यह सीरीज आगे बढ़ती है। लगभग आधे एपिसोड देखने के बाद पता चल जाता है कि अपहरणकर्ता कौन है, लेकिन वह बड़ी चालाकी से पुलिस को गुमराह करता रहता है और अंत में पकड़ा जाता है। असली रोमांच इस तथ्य को जानने में है कि अपहरण किसने किया और लगभग आधे एपिसोड देखकर ही इसका पता चल जाना इसकी रोचकता कम नहीं होने देता लेकिन यदि इसका पता अंत में चलता तो बेहतर होता। रावण के दस सिरों के रूपक को भी इसमें जोड़ा गया है लेकिन चार दुर्गुणों के बाद ही यह रूपक विस्मृत हो जाता है, जबकि इसे रावण के सभी दस दुर्गुणों के प्रतीकों को दर्शाना चाहिए था। यह इस सीरीज की प्रमुख कमी है। हालांकि मयंक शर्मा एवं अभिजीत देशपांडे ने अच्छी पटकथा बुनी है और दिल्ली एनसीआर की पृष्ठभूमि में मयंक शर्मा ने चुस्त दुरुस्त निर्देशन किया है। सीरीज का बैकग्राउंड स्कोर अथवा संगीत भी परिवेश के अनुरूप है। अभिषेक बच्चन ने इस सीरीज से वेब सीरीज की अभिनय पारी की शुरुआत की है और इस सीरीज में अपनी अभिनय की रेंज दिखाई है जो उनके भविष्य के लिए बेहतर है। मनोचिकित्सक और मनोरोगी की भूमिका में उनकी अभिनय क्षमता खुलकर सामने आई है। अमित साध, नित्या मेनन और सैयामी खेर के भी अभिनय में गहराई रही है। अमित साध को पुलिस अधिकारी की भूमिका में अभिनय क्षमता दिखाने का दूसरी बार इस सीरीज में मौका मिला है और इसका लाभ उन्होंने दोनों हाथों से उठाया है। नित्या मेनन दक्षिण भारतीय फिल्मों की स्थापित अभिनेत्री हैं और इससे पहले मिशन मंगल फ़िल्म में अपनी अभिनय क्षमता दिखा चुकी हैं और यहां भी वे प्रभाव छोड़ती नज़र आती हैं। सैयामी हिन्दी फ़िल्मों में अधिक सफल नहीं हुई हैं लेकिन स्पेशल ऑप्स, चोक्ड और इस सीरीज के माध्यम से ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जमती दिख रही हैं। शेष कलाकारों श्रुति बापना, प्लाबिता बोरठाकुर, हृषिकेश जोशी, पवन सिंह, श्रद्धा कौल, कुलजीत सिंह आदि ने भी अच्छा अभिनय किया है।  रहस्य, रोमांच, क्राइम थ्रिलर और तेज़ गति से बदलते दृश्यों का मज़ा लेने के शौक़ीन दर्शकों के लिए यह कोरोना काल में आई टॉनिक की भांति होगी।
मेरी ओर से इसे 4 स्टार।

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