आखर और मैथिली-भोजपुरी अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में भोजपुरी के गीतकार मोती बी.ए. की जन्मशताब्दी के अवसर पर ‘हिंदी सिनेमा के विकास में लोकसंगीत और लोकभाषा के प्रभाव (विशेष संदर्भ : भोजपुरी) विषयक आज हिंदी भवन में एक व्याख्यान का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता सुप्रसिद्ध लेखक, शास्त्रीय, सुगम, लोक संगीत के जानकार डॉ. प्रवीण झा एवं महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में शोधार्थी श्री देवेंद्र नाथ तिवारी ने मोती बी.ए. के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला।

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श्री तिवारी ने अपने बीज वक्तव्य में बताया कि मोती बी.ए. का मूल नाम मोतीलाल उपाध्याय था, वैसे लोग उन्हें प्यार से नन्हकू कहकर भी बुलाते थे। उनका जन्म बरेजी, बरहज तहसील, देवरिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उन्होंने कम से कम 80 फिल्मों में सैकड़ो गीत लिखे। पंडित सीताराम चतुर्वेदी उनके गुरु थे। वो 1936 में बनारस गए। उन्हें केदारनाथ सिंह, बेढब बनारसी, हरिवंश राय बच्चन के साथ एक मंच पर कविता करने का अवसर भी मिला। 1942 में जब वह लाहौर गए तो उस समय वह सिनेमा में हिंदी के केवल तीसरे रचनाकार थे। जब वह लाहौर गए तो उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। उन्होंने जोहरा बेगम के लिए भी गीत लिखा। मोती बी.ए. के पिताजी अमीन थे, उनपर पिताजी पर उर्दू का असर था। मोती बी ए हिंदी, भोजपुरी, उर्दू, अंग्रेजी और भोजपुरी पाँचों भाषाओं पर एकसमान पकड़ रखते थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके बारे में कहा है कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। उन्होनें गोरखपुर के संत एंड्रयूज से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की, महादेवी वर्मा से प्रेरित हुए। ‘अरी सखी! घूँघट का पट खोल…’ उनकी पहली कविता थी। मोती जी ने ‘सनन-सनन सन बहे…’ जैसे गीत लिखे। जाने-माने संगीतकार रवींद्र जैन ने खुद मोती बी ए के लिखे गीत ‘अइसन दुनिया बनवले के रामजी…’ को अपनी आवाज दी। लगभग साढ़े छह दशक तक उनका सृजन काल रहा। अपने जीवन के आखिरी 15 वर्षों में उन्होंने अधिकाधिक रचनाएँ की। अपनी बात रखते हुए श्री तिवारी ने कहा कि आज देवरिया में उनके नाम पर कुछ नहीं है; हाँ, व्यक्तिगत प्रयासों से उनके नाम पर एक सड़क है।

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हिंदी सिनेमा के विकास में लोकसंगीत और लोकभाषा के प्रभाव पर बोलते हुए डॉ. प्रवीण झा ने कहा कि लोकगीतों को डब्बा में बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह बहुआयामी होता है। भोजपुरी गीतों में रोमांस का अंदाज निराला है। 1931 में जब पहली हिंदी फिल्म आई तो उस समय फिल्मों में दृश्य कम और गीत अधिक (50-60) होते थे। 1931 में एक गीत का जिक्र आता है ‘साँची कहो बतिया, कहाँ रहे सारी रतिया…; यह निश्चित तौर पर बिहार-उत्तर प्रदेश की भाषा से मिलता है। पंजाब के टप्पे पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि ये टप्पे फिल्मों में नहीं आते। उन्होंने आगे कहा कि लोकगीतों में स्वरमान अधिक है, जो कि फिल्मों के माहौल के अनुसार सुगम नहीं होता है। इसी वजह से फिल्मों में लोकगीत नहीं आ पाते। आज भोजपुरी भाषा से लोग इसलिए भी परिचित हैं क्योंकि भोजपुरी गीत फिल्मों में आ रहे हैं। आजकल तो फिल्मी धुनों पर भजन भी गाए जा रहे हैं। पंजाबी भाषा ने अपने लोकगीतों को मोड्यूलेट कर हिंदी सिनेमा को योगदान दिया है। ‘एही ठईंया मोतिया हेरइले हो रामा…’ ‘मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़…’ जैसे ठुमरी (तवायफों के गीत) को भी लोकगीतों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। सच कहूँ तो सर्वाधिक लोकगीत बिहार और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों से लिए गए हैं। ‘पान खाए सइयाँ हमार…’ और ‘पीपरा के पतवा…’ जैसे गीत तो सुगम संगीत के अंतर्गत आते हैं लेकिन इन्हें भी लोकगीतों में रखा जाना चाहिए। और अधिक भोजपुरी लोकगीतों को सिनेमा में लाने के लिए इसमें थोड़ा-बहुत मोडयूलशन करना होगा। असल में लोकगीतों का जो खुलापन है यदि उसे फिल्मों में डाला जाए तो वही भौंडापन हो जाता है। इसपर ध्यान दिया जाना चाहिए। चंद्रगुप्त ने तो ‘जा-जा रे सुगना…’ जैसे गीत लता मंगेशकर से गवाए।अब स्थिति के अनुसार लोकगीतों को ढालने का प्रयास किया जाना चाहिए।
श्री अनूप श्रीवास्तव ने मोती बी ए के साथ अपने बिताए पलों को साझा करते हुए कहा कि ‘वह (मोती बी ए) अपने संघर्ष को हल्के में उड़ा देते थे।
श्री निराला बिदेसिया ने समापन वक्तव्य में बताया की शारदा सिन्हा, विंध्यवासिनी देवी और स्नेहलता के बाद बिहार के सांस्कृतिक अंतर को डॉ. प्रवीण झा पाट रहे हैं। यह प्रशंसनीय है। रसूल मियाँ, मोती बी ए, भोलानाथ गहमरी जैसे और लोगों पर भी बात किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य भी यही है। भोजपुरी के अतीत की पूरी बात नहीं की गई है। ‘अंगनइया बीचे तुलसी लगाइब के हरी…’ मोती बी ए का गीत है। मोती बी ए 1948 से पहले से लिखते रहे। वो संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ-साथ भोजपुरी में लिखते रहे। शैलेंद्र, मशहूर गीतकार, कभी भोजपुरी इलाके में नहीं रहे, लेकिन उनकी भोजपुरी में उनकी रचनाधर्मिता ने कमाल किए। भोजपुरी की दुविधा यही है कि यह ‘भ्रम की शिकार’ रही है। जिसे देखिए वही खड़े होकर कहने लगता है कि भोजपुरी की शुरुआत उसी से हुई है इसलिए भी मोती बी ए जैसे नायकों के बारे में जानने, समझने की जरूरत है। कैलाश गौतम, विश्वनाथ शाहाबादी, मनोरंजन प्रसाद सिन्हा, बाबू रघुवीर नारायण, भोलानाथ गहमरी जैसे नायकों के बारे में बात करनी होगी।
कार्यक्रम का संचालन मैथिली-भोजपुरी अकादमी, दिल्ली सरकार के सदस्य डॉ. एम. के. पाण्डेय ने किया। डॉ. पाण्डेय ने मोती बी.ए. के बारे में बताते हुए कहा कि उनका जन्म 01.08.1919 को हुआ था। हालांकि उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि मेरे सही जन्म तिथि का नहीं पता, चार साल की उम्र में मेरी कुंडली चोर चुरा कर ले गए; अतः मेरी उम्र अतिथि मानी जाए। अकादमी की ओर से धन्यवाद ज्ञापन श्रीमती सुनीता नारंग, लेखाधिकारी ने किया।

दी सिनेमा के विकास में लोकसंगीत और लोकभाषा के प्रभाव पर बोलते हुए डॉ. प्रवीण झा ने कहा कि लोकगीतों को डब्बा में बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह बहुआयामी होता है। भोजपुरी गीतों में रोमांस का अंदाज निराला है। 1931 में जब पहली हिंदी फिल्म आई तो उस समय फिल्मों में दृश्य कम और गीत अधिक (50-60) होते थे। 1931 में एक गीत का जिक्र आता है ‘साँची कहो बतिया, कहाँ रहे सारी रतिया…; यह निश्चित तौर पर बिहार-उत्तर प्रदेश की भाषा से मिलता है। पंजाब के टप्पे पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि ये टप्पे फिल्मों में नहीं आते। उन्होंने आगे कहा कि लोकगीतों में स्वरमान अधिक है, जो कि फिल्मों के माहौल के अनुसार सुगम नहीं होता है। इसी वजह से फिल्मों में लोकगीत नहीं आ पाते। आज भोजपुरी भाषा से लोग इसलिए भी परिचित हैं क्योंकि भोजपुरी गीत फिल्मों में आ रहे हैं। आजकल तो फिल्मी धुनों पर भजन भी गाए जा रहे हैं। पंजाबी भाषा ने अपने लोकगीतों को मोड्यूलेट कर हिंदी सिनेमा को योगदान दिया है। ‘एही ठईंया मोतिया हेरइले हो रामा…’ ‘मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़…’ जैसे ठुमरी (तवायफों के गीत) को भी लोकगीतों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। सच कहूँ तो सर्वाधिक लोकगीत बिहार और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों से लिए गए हैं। ‘पान खाए सइयाँ हमार…’ और ‘पीपरा के पतवा…’ जैसे गीत तो सुगम संगीत के अंतर्गत आते हैं लेकिन इन्हें भी लोकगीतों में रखा जाना चाहिए। और अधिक भोजपुरी लोकगीतों को सिनेमा में लाने के लिए इसमें थोड़ा-बहुत मोडयूलशन करना होगा। असल में लोकगीतों का जो खुलापन है यदि उसे फिल्मों में डाला जाए तो वही भौंडापन हो जाता है। इसपर ध्यान दिया जाना चाहिए। चंद्रगुप्त ने तो ‘जा-जा रे सुगना…’ जैसे गीत लता मंगेशकर से गवाए।अब स्थिति के अनुसार लोकगीतों को ढालने का प्रयास किया जाना चाहिए।
श्री अनूप श्रीवास्तव ने मोती बी ए के साथ अपने बिताए पलों को साझा करते हुए कहा कि ‘वह (मोती बी ए) अपने संघर्ष को हल्के में उड़ा देते थे।
श्री निराला बिदेसिया ने समापन वक्तव्य में बताया की शारदा सिन्हा, विंध्यवासिनी देवी और स्नेहलता के बाद बिहार के सांस्कृतिक अंतर को डॉ. प्रवीण झा पाट रहे हैं। यह प्रशंसनीय है। रसूल मियाँ, मोती बी ए, भोलानाथ गहमरी जैसे और लोगों पर भी बात किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य भी यही है। भोजपुरी के अतीत की पूरी बात नहीं की गई है। ‘अंगनइया बीचे तुलसी लगाइब के हरी…’ मोती बी ए का गीत है। मोती बी ए 1948 से पहले से लिखते रहे। वो संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ-साथ भोजपुरी में लिखते रहे। शैलेंद्र, मशहूर गीतकार, कभी भोजपुरी इलाके में नहीं रहे, लेकिन उनकी भोजपुरी में उनकी रचनाधर्मिता ने कमाल किए। भोजपुरी की दुविधा यही है कि यह ‘भ्रम की शिकार’ रही है। जिसे देखिए वही खड़े होकर कहने लगता है कि भोजपुरी की शुरुआत उसी से हुई है इसलिए भी मोती बी ए जैसे नायकों के बारे में जानने, समझने की जरूरत है। कैलाश गौतम, विश्वनाथ शाहाबादी, मनोरंजन प्रसाद सिन्हा, बाबू रघुवीर नारायण, भोलानाथ गहमरी जैसे नायकों के बारे में बात करनी होगी।
कार्यक्रम का संचालन मैथिली-भोजपुरी अकादमी, दिल्ली सरकार के सदस्य डॉ. एम. के. पाण्डेय ने किया। डॉ. पाण्डेय ने मोती बी.ए. के बारे में बताते हुए कहा कि उनका जन्म 01.08.1919 को हुआ था। हालांकि उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि मेरे सही जन्म तिथि का नहीं पता, चार साल की उम्र में मेरी कुंडली चोर चुरा कर ले गए; अतः मेरी उम्र अतिथि मानी जाए। अकादमी की ओर से धन्यवाद ज्ञापन श्रीमती सुनीता नारंग, लेखाधिकारी ने किया।

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