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कभी कभी इंसान कुछ इस तरह के काम कर जाता है जो जीवन के लिए यादगार बन जाता है और ता उम्र उसे भूल नहीं पता है। दोस्तो वैसे तो विश्वास आज के जमाने मे लोग किसी पर भी नहीं करते है। क्योंकि समय और चारो तरफ का वातावरण बहुत ही अजीब सा चल रहा है। परंतु कभी कभी दिल और मन व अंतर आत्मा के भाव कुछ अलग ही करने को बोलते है। और हम मन की बात मानकर कुछ ऐसा कर जाते है। जिस बारे में यदि सोच विचार करते तो नहीं करते। परंतु तुरन्त जो समझ आया वो कर दिया और फिर वह घटना जिंदगी की एक मिसाल बन गई।
इसी बात को लेकर मन के भाव आप सभी के सामने एक लेख के द्वारा व्यक्त करने की मैं कोशिश कर रहा हूँ। एक छोटी से घटना के द्वारा।

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी लेकर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था। उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आकर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई।

‘शिवा विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे। मैंने लिफाफा खोला तो उसमें 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी। इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर। मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला। पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया और लिखा था :-

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आपको दे रहा हूं। मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा। ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है। घर पर सभी को मेरा प्रणाम।
आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए।
एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलट पलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी। वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता। मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा। पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी। वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा हाथ लगती।
मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया। वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था। मुझे देखकर उसमें फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उसने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कि, मैंने उस लड़के को ध्यान से देखा। साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण। ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था। पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैंने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’
‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा।
‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला।

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उसके साथ गुजार रहा हूँ।
‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला।

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया।

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था। जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो। मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ। मैंने अपना एक हाथ उसके कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा, शायद काफी समय निराशा का उतार चढ़ाव अब उसके बरदाश्त के बाहर था।
‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूँ और पूरे स्कूल मे प्रथम आया हूँ। मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं। मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है। अब उसमें प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है। कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा।

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैंने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा?
‘अमर विश्वास.’
‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो। कितना पैसा चाहिए?’

बोल ‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी।

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैंने थोड़ा हंस कर पूछा।

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूँ। आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं। मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूँ। आप पहले आदमी हैं जिसने इतना पूछा। अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो, मैं भी आपको किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी।

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उसके लिए सहयोग की भावना तैरने लगी। मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिलमें उसकी बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था। आखिर में दिल जीत गया, मैंने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिनको मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए। वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझसे वह पैसे निकलवा लिए।

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूँ। तुमसे 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है जिसका नाम मिनी है। सोचूंगा उसके लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैंने पैसे शिवा की तरफ बढ़ाते हुए कहा।

शिवा हतप्रभ था, शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था, उसकी आंखों में आंसू तैर आए। उसने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं।

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

मैंने कहाँ ‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो। यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना।
वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैंने उसका कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी वो मुझे दूर तक देखता रहा।

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिसमें अनिश्चितता ही ज्यादा थी। कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा। अत: मैंने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया।

दिन गुजरते गए, शिवा ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी। मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई। एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिलमें अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उसके पते पर फिर भेज दूँ। भावनाएं जीतीं और मैंने अपनी मूर्खता फिर दोहराई।

दिन हवा होते गए उसका संक्षिप्त सा पत्र आता जिसमें 4 लाइनें होतीं। 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था। मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता। मैंने कभी चेष्टा भी नहीं कि उसके पास जाकर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया। कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा। एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए लंदन जा रहा है। छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला।

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने। समय पंख लगा कर उड़ता रहा। शिवा ने अपनी शादी का कार्ड भेजा। वह शायद लंदन में ही बसने के विचार में था। मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। एक बड़े परिवार में उसका रिश्ता तय हुआ था। अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी। एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है। शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया। मैंने शिवा को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड शिवा को भी भेज दिया।

शादी की गहमागहमी चल रही थी। मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में, एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी। एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उसकी पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले।

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है। उसने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए।

‘‘सर, मैं शिवा…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी। मैंने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया। उसका बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था। मिनी अब भी संशय में थी। शिवा अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था। मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया। मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी।

शिवा शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा। उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया। उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए।
इस बार अमर जब लंदन वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं। हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथ साथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था।

*मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है*
कहते है की इंसान के अंदर क्षणिक भगवान का वास होता है और वो समय ईश्वर खुद ही कुछ अच्छा और सच्चा इंसानो से करवा देता है।

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