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श्रम की मूरत, छली गई है
अलग अलग के दौर में
जब संकट आया भू, पर
मलाई उड़ाई किसी और ने
छलिया है चालाक बहुत
पल में गुस्सा पल में आँसू
हँस- हँसकर बातें करता अंदर
बाहर में चेहरा लटका हुआ
करता सौदा अंदर बैठकर
अपने लोगों की खातिर
घर भर देता कुछ लोगों का
बाकी को भूखा छोड़ दिया
मुट्टी भर दाना बांटा था, जन को
ख़जाना देखो खाली हुआ
उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम
चल पड़ी है भ्रम की मूरत
पैदल ही आशियाने की ओर
क्या भूख प्यास, क्या रास्ता कच्चा पक्का
राही चला जंगल की ओर
पूरी रात चला चाँदनी  में
जब हुई थी भोर सुस्ताने लगा बैठ पटरी पर
आ गई बैरन नींद, एक ओर
पल भर में टुकड़े-टुकड़े
बिखरे पड़े ट्ठे चारों ओर
रोटियाँ कपड़े और पैसे
गवाह बनकर
कर रहे थे शोर
शांत हुई है, श्रम की मुरत
ख़ामोशी इनकी सब कुछ कहती
नहीं मिलेगा कुछ भी तुमको
जब नहीं बचेगी श्रम की मूरत।

#happylabourday

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