ना जाने कहां पड़ा है

कहीं रखकर

भूल गई हूं शायद

एक मन था जो

मेरे पास हुआ करता था

जाने कहां गया

मिलता ही नहीं

 

वैसे…

मैंने कोशिश भी कहां की

उसे ढूंढने की

गृहस्थी की जिम्मेारियों से

फुर्सत ही कब मिली

कि कभी

हाड़ मांस के इस

झोले को टटोलूं

देखूं कि

इसमें पड़ा भी है

या नहीं

अनगिनत इच्छाओं और

आकांक्षाओं से भरा

मेरा वो मन

जिसे मैंने

बड़ा सहेजकर इस

झोले में रखा था

कितना समय बीत गया

कभी दिखा ही नहीं

 

आज थोड़ी फुर्सत थी

तो सोचा

याद ही कर लूं कि

आख़िरी बार

कहां देखा था

स्मृतियां भी अब

स्पष्ट कहां रहीं

पर हां

एक घर है जो

बार – बार मेरी

स्मृति में झूल जाता है

बिल्कुल मेरे

मायके के घर जैसा

 

तो क्या

वहीं छूट गया था

मेरा मन

आश्चर्य है!

इतने बरस बीत गए

कभी ध्यान ही नहीं दिया

अब तो

मां बाबा भी 

नहीं उस घर में

जो ना मिलने पर भी

ला देते मेरे लिए

एक नया मन

और मेरे भाई

जो अब उस

मकां में रहते हैं

क्या मिल जाने पर भी

लाने देंगे मुझे

अपने साथ

या फ़िर जताएंगे

मालिकाना हक़

 

पता नहीं 

पर हां

मैं जाऊंगी ज़रूर

ढूंढूंगी उसे

शायद एक बार

दिख ही जाए

घर के किसी कोने में

या फ़िर किसी पुरानी

अलमारी के नीचे पड़ा

धूल और मिट्टी से सना

मेरा वो मन

जिसे मैं अपने

साथ लाना

भूल गई थी!

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *