हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर, 1923 को बैजनाथ पारा, रायपुर में हुआ था। बचपन से ही उनका  रुझान कला एवं अभिनय की तरफ रहा। अपने बम्बई प्रवास के दौरान तनवीर आकाशवाणी (बम्बई) के तत्कालीन निर्देशक रहे तथा ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के सहायक संपादक हुए। साथ ही कई फिल्मों में अभिनय, गीत एवं संवाद लेखन का काम भी किया। इसके बाद 1954 में दिल्ली आकर सबसे पहले बच्चों के साथ रंगकर्म से जुड़े। बाद में उन्होंने अपने ‘नया थियेटर’ की स्थापना 1959 में की जिसकी पहली प्रस्तुति ‘सात पैसे’ थी। हबीब का थियेटर न तो पश्चिमविरोधी है और न ही परम्परावादी। उनके थियेटर में इन दोनों का समन्वय है। हबीब तनवीर की रंगचेतना में  छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को  व्यापक स्थान मिला है। ‘लोक’ उनके यहां जीवन का हिस्सा है। उन्होंने ‘नाचा’, पंडवानी गायन, पंथी नर्तन, सुआ गीत, चन्दैनी,  भारत लीला, स्वांग, प्रह्लाद नाटक जैसी लोक शैलियों और विभिन्न प्रदेशों के आनुष्ठानिक प्रयोगों, लोक कथाओं आदि को भी अपने रंगमंच में शामिल किया जिसकी ताजगी और स्फूर्ति ने हिंदी रंगकर्म के लिए एक नया रास्ता खोल दिया। इसके अतिरिक्त रंग संगीत भी उनके नाटकों की एक शक्ति थी। वे करवा, बदरिया, विहाव इन लोक धुनों का प्रयोग करते थे। सही मायने में उनके नाटक कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बंधे-बंधाएं ढांचे से मुक्त है। उनकी प्रस्तुतियों में हर बार कुछ नया जुड़ता था, पुराना छूट जाता था। नए संदर्भ, नई परिस्थितियां, नए दबाव उन्हें निरंतर ताजा बनाए रखते हैं।     हबीब तनवीर ने समाज की समस्याओं का बारीकी से अध्याय किया था और उसके निदान के लिए अपने नाटकों को माध्यम बनाया। उनके व्यक्तित्व में आधुनिक बोध स्पष्ट दिखाई देता है। हबीब तनवीर कहते थे ‘किसी नयी चीज़ को पुरानी चीज़ से मिला दीजिये तो एक तीसरी खासियत पैदा होती है और उसका नाम है आधुनिकता या रेनेसां’ पर वे बंद आँखों से भारतीय रंगमंच पर आधुनिक बोध को नहीं देख रहे थे। उन्होंने पश्चिम की उस आधुनिकता (जिसमें  परम्परा को आधुनिकता के विपरीत समझा जाता था) को अस्वीकार कर अपना रास्ता परम्परा और आधुनिकता के बीच उनके मिश्रण में तलाशा। इसमें अपनी जड़ों की पहचान, नवीनता की स्वीकृति, तर्क, गतिशीलता, मानवतावादी दृष्टिकोण, संघर्ष की चेतना आदि का भाव नीहित है। इस दृष्टि से  हबीब तनवीर के रंगमंच इसका अपवाद नहीं। यह आधुनिक रंगमंच और लोक रंगमंच का मिला जुला प्रयोग है।
भारतीय रंगमंच पर हबीब जन-साधारण के हितों और आकांक्षाओं के प्रतिनिधि के रूप में उभर कर सामने आते हैं, हाशिए के लोगों के सवालों को केंद्र में लेकर आते हैं। अपने लगभग सभी नाटकों में उन्होंने समाज, धर्म, संस्कृति, राजनीति आदि की समस्याओं एवं प्रश्नों को उठाया है। ‘आगरा बाजार’ अपनी प्रतीकात्मकता में तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता के समय आम आदमी के बीच व्याप्त हताशा, कुंठा और असमंजस की स्थिति का चित्रण करता है। वही ‘मिट्टी की गाड़ी’ पहली बार एक साधारण आदमी के नायकत्व का बोध कराता है। ‘बहादुर कलारिन’ में तो हबीब तनवीर द्वारा लोककथा की एक नितात आधुनिक व्याख्या हुई है। इस नाटक में मनुष्य मन का गहरा स्वभाव देखने को मिलता है। हबीब तनवीर की दृष्टि लगातार अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों पर थी।। आपातकाल के बाद ‘चरनदास चोर’ में रानी की निरंकुशता तत्कालीन स्थितियों में और भी व्यंग्यात्मक हो जाती थी। यह नाटक एक चोर के सत्य के आग्रह की लोक कथा है जो आधुनिक और सामाजिक विसंगतियों को उभारने में भी सफल रहा। जबकि ‘हिरमा की अमर कहानी’ में वे आदिवासियों के जीवन की विसंगतियों को उठाते हैं। हबीब तनवीर के अन्य नाटकों की तुलना में इसमें राजनीतिक तत्त्व सबसे ज्यादा है, लेकिन अफ़सोस यह है कि इस नाटक की कम ही चर्चा हुई। सच्चाई तो यह है कि आज भी भारत में आदिवासी प्रश्न अनसुलझे हैं।
उदारीकरण के बाद उससे हुए विकास के खोखले दावों की हकीकत बताने के लिए ‘सड़क’ नाटक तैयार किया। इस नाटक के आदिवासी पात्र बताते हैं कि सड़क के आगमन से उनके जंगली जानवर, पेड़, फल इत्यादि समाप्त होते जा रहे हैं। इस आधुनिक विकास से केवल सामान्य जीवन ही नहीं उनकी संस्कृति भी प्रभावित होती है। ‘जहरीली हवा’ में भी वे दिखाते हैं किस प्रकार व्यापक जनसंहार के बाद विकास के सूत्रधार जनता को दयनीय स्थिति में डाल कर छोड़ देते हैं। नब्बे के दशक के बाद सांप्रदायिक उन्माद ने भी समकालीन जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया। उसे केंद्र में रखकर हबीब तनवीर ने ‘जिस लाहौर नइ देख्या’ और ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ का मंचन किया। हबीब अपने समय की सांप्रदायिक शक्तियों के उभार और सत्ता के साथ उनके गठजोड़ के दुष्परिणामों की चिंता से भी वे जूझ रहे थे। इसीलिए उनकी अंतिम प्रस्तुति ‘राजरक्त’ धर्म और राज-सत्ता के संबंधों और टकराव पर  आधारित है। वहीं जाति प्रथा की विडंबना को ‘पोंगा पंडित’के माध्यम से व्यक्त किया जिस कारण इस नाटक और स्वयं हबीब तनवीर पर प्रतिक्रियावादियों ने हमले भी किये, लेकिन वे कभी रुके नहीं।
हबीब तनवीर के सभी नाटकों में आधुनिक संवेदना दर्शक को छूती चली जाती है। उन्होंने साबित किया है कि बोली में भी समकालीन हुआ जा सकता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि ‘बुद्धिमान आदमी एक पैर से खड़ा रहता है, दूसरे से चलता है। … खड़ा पैर परम्परा है, चलता पैर आधुनिकता। दोनों का पारस्परिक संबंध खोजना बहुत कठिन नहीं है। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती।’ हबीब तनवीर का रंगमंच का स्पष्ट उदहारण है। उन्होंने आधुनिकता की संरचना में अपने लोक कलाकारों को ढालने की बजाय उनकी संरचना को आधुनिक बनाया। उनकी सहजता को नष्ट होने से बचाया। वास्तव में हबीब तनवीर ने  भारत को एक ऐसा थियेटर दिया जो आधुनिक होने के साथ-साथ  परम्परा से भी जुड़ता है।

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *