बड़ी ख़ुदग़र्ज़,बड़ी फ़ितरती है दुनियाँ,
नफ़रतों के खम्बों पर,टिकी है दुनियाँ।
किसी को ग़म नहीं धेले भर किसी का,
ये बड़ी ही बेरहम,और बेरुख़ी है दुनियाँ।
अब तो जीते हैं लोग बस अपने लिए ही,
यारों औरों के लिए,मर चुकी है दुनियाँ।
न रहे ज़िंदा अब तो बेमक़सद के रिश्ते,
अब मतलब की दोस्ती,करती है दुनियाँ।
देते हैं जो छांव धूप में जल कर भी यारों ,
फर्सा उन्हीं की जड़ पे,पटकती है दुनियाँ।
अफ़सोस होता है देख कर दो रंग इसके,
कहीं हंसती,तो कहीं सिसकती है दुनियाँ।
लोग ख़ैरियत पूछने में देखते हैं हैसियत,
कैसे पल पल में देखो,बदलती है दुनियाँ।
ये कैसा उल्टा है कानून ख़ुदा का “मिश्र,”
कि जो मारते हैं,उन्हीं पे मरती है दुनियाँ।