मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसी शख्सियत है जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, बल्कि देश – विदेश  में भारतीयों का परिचय इनके नाम से किया जाता है। कितने ही वाकया हैं जिसमें देश से विदेश गए लोगों से विदेशी यह कहते हुए मिलते हैं कि ये गांधी के देश से आए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि गांधी  भारत की आत्मा हैं जिससे देश की पहचान बनी हुई है।
परन्तु आज के 21वीं सदी में गांधी  की उस छवि को आमजन के सामने धुमिल किया जा रहा है। टेक्नोलॉजी ने गांधी  की छवि को धुमिल करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। कहते हैं कि जब व्यक्ति अपने तर्को से सामने वाले से हारने लगता है तो अंततः उसके सामने दो ही रास्ते बचते हैं अपनी जीत का परचम लहराने को – पहला अपशब्द का प्रयोग दूसरा सामने वाले के चरित्र पर कीचड़ उछालना। चूँकि गांधी  को अपशब्द कहने से भी उनके विरोधियों को जब कोई बल न मिला तो आधुनकि युग में प्रयुक्त हथियार फोटोशॉप का सहारा लेकर गांधी  के चरित्र पर प्रहार किया जाने लगा है। 2 अक्टूबर या लोकसभा-विधानसभा चुनाव आते ही सोशल मीडिया पर गांधी  की एक तस्वीर वायरल होने लगती है जिसमें एक लड़की के साथ बहुत ही करीब बैठे हुए हैं और उनकी नाक आपस में छू रही है। इस तस्वीर में दोनों हँसते हुए दिखाए गए हैं। चूँकि फेक फोटोशॉप विशेषज्ञों के द्वारा इस तस्वीर की सत्यता जांचकर उसे फेक साबित किया जा चुका है। परन्तु सवाल यह है कि अगर यह तस्वीर सच भी होती तो इसमें आपत्ति जनक बात क्या थी जिसे इतना वायरल कर उनके चरित्र पर प्रहार किए गया? अगर गांधी किसी के साथ इतनी आत्मीयता और सहजता के साथ तस्वीर खींचते भी है तो उसमें किसी को क्या आपत्ति?  परन्तु हमारी भारतीय संस्कृति का हवाला देकर उनके चरित्र पर इन दिनों इसी तस्वीर को सामने रख कटाक्ष करते हैं। यही नहीं गांधी पर जब भी महिलाओं को लेकर बात की जाती है तो “मेरे सत्य के प्रयोग” को ही केंद्र में रख बात की जाती है और उन्हें नारी विरोधी तक कह दिया जाता है। आज के दौर में जब सारे ज्ञान स्रोत सोशल मीडिया ही रह गया है तो गांधी और उनकी नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण पर व्यापकता से चर्चा-परिचर्चा की जानी चाहिए।
आज के संदर्भ में जब गांधी के स्त्री सम्बन्धी विचार और उनके द्वारा किए गए कार्य पर दृष्टि डालते हैं तो गांधी  नारी सशक्तीकरण की सबसे सशक्त नींव नज़र आते हैं। जिस पर आज स्त्री विमर्श की पूरी इमारत खड़ी हुई है। गांधी  से पहले भी नारी जागरण और  उनके उद्धार के कार्य किये जा रहे रहे थे परंतु इनके आने और इनके प्रयासों के बाद इसे अमली जामा पहनाया जा सका।
गांधी  जी ने एक ऐसे समाज के निमार्ण का सपना देखा था जिसकी नींव न्याय, समानता और शांति पर आधारित हो। इस उद्देश्य को असलियत का जामा पहनाने के लिए यह जरूरी था कि समाज के दो आधारभूत अंग – स्त्री और पुरूष के बीच समानता हो। दोनों के अधिकार समान हो। दोनों को बराबरी का सम्मान मिले। गांधी जी ने इसकी शुरुआत सबसे पहले पारिवारिक सम्पत्ति से करने को कहा। वो लिखते हैं -“पारिवारिक सम्पत्ति में बेटा और बेटी को समान हक होना चाहिए। उसी प्रकार पति की आमदनी को पत्नी की सामूहिक सम्पत्ति समझा जाना चाहिए, क्योंकि इस आमदनी के अर्जन में स्त्री का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योगदान रहता है।”(1)
आज 21वीं सदी में जब स्त्री सम्पत्ति में बराबर के अधिकार और अपने हक की लड़ाई लड़ रही है तो गांधी जी के उपरोक्त कथन उन्हें स्त्री अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला सच्चा योद्धा और मित्र ही घोषित करता है।
भारतीय घरों में पली बढ़ी लड़कियों की कंडिशनिंग/परवरिश होने वाले ससुराल और पति के इर्द गिर्द ही की जाती है। लड़की जन्म लेती नहीं कि उसे पति को खुश करने के लाखों गुण सिखाए जाने लगते हैं। कैसे भोजन बनाया जाय, कैसे शृंगार किया जाय, पति से कैसे बोला जाय — अर्थात कुल मिलाकर उसे मात्र एक मनोरंजन की वस्तु ही बनाया जाता रहा है। गांधी जी लड़कियों की परवरिश के इस तौर तरीकों की खुले शब्दों  में विरोध करते हुए ही दिखते हैं। उन्होंने लिखा है “यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो पुरुषों के इस दावे के खिलाफ विरोध कर देता कि स्त्री उसका मन बहलाने के लिए ही पैदा हुई है।”(2) इतना ही नहीं गांधी  जी आगे लिखते है “स्त्री को चाहिए कि वह ख़ुद को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बन्द कर दे। इसका इलाज पुरुषों के बजाय स्त्री के हाथ में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर जिसमे पति भी शामिल है, सजने से इनकार कर देना चाहिए, तभी वह पुरूष के साथ  बराबर की साझीदार बनेगी।”(3)
नारी सशक्तीकरण की सबसे बड़ी लड़ाई स्त्री को कमजोर न मानने की है। पुरुषों ने षणयंत्र रचकर यह स्थापित कर दिया है कि स्त्री पुरुषों के मुकाबले कमजोर होती हैं, इसलिए उन्हें पुरुषों के सहारे ही अपना जीवन जीना चाहिए। बिना पुरुष के उसके जीवन को कोई मोल नहीं। परन्तु गांधी  जी का मानना था कि स्त्री में पुरुषों से अधिक शक्ति और आत्म-त्याग होता है, लेकिन दुर्भाग्य से वह आज यह सब नहीं समझ पा रही कि वो कितनी श्रेष्ठ है। गांधी जी “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी” जैसी युक्ति के सख्त  विरोधी थे। वो नारी को अबला नहीं सबला मानने के पक्षधर थे। यही वजह है कि वो सम्पूर्ण भारत की स्त्री से निवेदन करते हुए कहते हैं” बहनों के बीच सहयोग अत्यंत आवश्यक है। आज स्त्री – सेविकाओं की खास जरूरत है, क्योंकि स्त्रियों के हाथ में स्वराज्य की कुँजी है। तुम कुशल बनकर पवित्र जीवन बिताकर, सारे भारतवर्ष में फैल जाओ। लोगों का यह ख़्याल कि स्त्री भीरू और अबला होती है, गलत साबित कर देना।”(4) गांधी जी स्त्री की पहचान “अबला” स्वरूप में नहीं नारी रूप में करते थे – “वह अबला नहीं, नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति से अधिक उदात्त है।”(5)
स्त्री जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि विवाह उपरांत उसके शरीर को उसकी निजी सम्पत्ति नहीं माना जाता। 19वीं शताब्दी से लेकर 21वीं सदी में भी स्त्री इन्ही सवालों से लड़ रही है। पुरुष रूपी पति उसके शरीर पर अपना एकमेव अधिकार समझ उसे अपनी इच्छानुसार उपयोग करता आ रहा है। ऐसा नहीं है कि इतनी बड़ी समस्या पर किसी का कभी ध्यान नहीं गया या आज़ादी के बाद स्त्री विदुषियों ने उसपर आवाज़ उठाई हो। बंगाल में घटित एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद इस मुद्दे पर 19वीं शताब्दी में ही सरकार और समाज सुधरको ने अपनी आवाज़ बुलंद की थी। 11 साल की बंगाली लड़की फूलमनि का आज से लगभग 120 साल पहले उसके पति ने बलात्कार किया, जिससे उसकी मौत हो गई।  अंग्रेजों ने इसके बाद एज ऑफ कंसेंट एक्ट 1891 लाया, जिसमें लड़की के साथ सहमति से सेक्स करने की न्यूनतम उम्र 10 साल से बढ़ाकर 12 साल करने की व्यवस्था की गई। परन्तु भारतीय संस्कृति के रक्षकों समेत “लोकमान्य” तिलक सहित क्रांतिकारियों ने इसका विरोध इस आधार पर किया था कि यह हिंदू धर्म परंपरा के खिलाफ है क्योंकि शादी तो रजस्वला होने से पहले होनी चाहिए। जब गांधी जी अपरोक्ष रूप से राजनीति में आए तो ऐसी अमानुषिक रीत – रिवाजों और संस्कृति का विरोध किया और नारी शिक्षा में अपने स्वामी, पति के हाथों की कठपुतली बनने से इनकार करने की शिक्षा भी शामिल करने की अपील की। उनका मत था कि सहवास जैसी पवित्र प्रक्रिया दोनों अथार्त पति-पत्नी की रजामंदी से होनी चाहिए। 1936 के  हरिजन अंक में वो लिखते हैं “मेरा दृढ़ मत है कि इस देश की सही शिक्षा यही होगी कि स्त्री को अपने पति से भी ‘न’ कहने की कला सिखाई जाए। उसे यह बताया जाए कि अपने पति की कठपुतली या उसके हाथों की गुड़ियाँ बनकर रहना उसके कर्तव्य का अंग नहीं है। उसके अपने अधिकार हैं और अपने कर्तव्य है।”(6 ) गांधी  जी के आग्रह और ऐज ऑफ कंसेंट बिल के होने पर भी आज के युग मे भी स्त्री “माय बॉडी माय रूल” जैसे स्लोगनों को लिख इन्ही मुद्दों पर लड़ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने अब जाकर 158 साल पुराने सेक्शन 497 को ख़त्म करके स्त्री और पुरुष को बराबरी का हक दिया है। लेकिन गांधी  जी इस बात के पैरोकार उस वक्त रहे है जब कोई इस बारे सोचने की हिम्मत भी नहीं कर सकता था।
बलात्कार जैसी क्रूर और वीभत्स जैसे कुकृत्य नए दौर का नया फैशन नहीं है और न ही यह स्त्रियों को अधिक आजादी देने की वजह। बल्कि यह सदियों से बर्बर, हिंसक और चारित्रिक कमजोर मर्दो द्वारा की जाने वाली महिलाओं पर हिंसा है। परतुं हम महिलाओं की यौनिकता को ही उनके व्यक्तित्व का एकमात्र केंद्र बना देते हैं, जब हम उनके यौनांग या जननांग की ‘पवित्रता’ को ही उनके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त बना देते हैं, तो यह हमारी महिलाओं में इतनी आत्मघृणा या इतने आत्मतिरस्कार का भाव भर देता है कि वे ऐसे मामलों में कई बार अपनी जान ले बैठती हैं। कई बार पुरुषों के साथ हुए बलात्कार में भी यही बात निकलकर आती है।  बलात्कार से पीड़ित पुरुषों द्वारा आत्महत्या की खबरें आती ही रहती हैं।(7) आज भी समाज में बलात्कार पीड़िता को ही दोषी माना जाता है। गांधी  जी के विचार इस पर पठनीय तथा सराहनीय है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब दुनियाभर के फौजी ‘शत्रुदेश’ की महिलाओं के साथ बलात्कार को युद्धनीति के रूप में स्वीकार कर चुके थे, उस दौरान फरवरी, 1942 में किसी महिला ने उसी संदर्भ में महात्मा गांधी को पत्र लिखकर उनसे बलात्कार के बारे में तीन सवाल पूछे –
यदि कोई राक्षस-रूपी मनुष्य राह चलती किसी बहन पर हमला करे और उससे बलात्कार करने में सफल हो जाए, तो उस बहन का शील-भंग हुआ माना जाएगा या नहीं?
क्या वो बहन तिरस्कार की पात्र है? क्या उसका बहिष्कार किया जा सकता है?
ऐसी स्थिति में पड़ी हुई बहन औऱ जनता को क्या करना चाहिए?
एक मार्च, 1942 को गुजराती ‘हरिजनबंधु’ में गांधीजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा – ‘जिस पर बलात्कार हुआ हो, वह स्त्री किसी भी प्रकार से तिरस्कार या बहिष्कार की पात्र नहीं है। वह तो दया की पात्र है। ऐसी स्त्री तो घायल हुई है, इसलिए हम जिस तरह घायलों की सेवा करते हैं, उसी तरह हमें उसकी सेवा करनी चाहिए। वास्तविक शील-भंग तो उस स्त्री का होता है जो उसके लिए सहमत हो जाती है। लेकिन जो उसका विरोध करने के बावजूद घायल हो जाती है, उसके संदर्भ में शील-भंग की अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि उस पर बलात्कार हुआ। ‘शील-भंग’ शब्द बदनामी का सूचक है और इस तरह वह ‘बलात्कार’ का पर्याय नहीं माना जा सकता है। जिसका शील बलात्कारपूर्वक भंग किया गया है, यदि उसे किसी भी प्रकार निन्दनीय न माना जाए तो ऐसी घटनाओं को छिपाने का जो रिवाज हो गया है, वह मिट जाएगा। इस रिवाज के खत्म होते ही ऐसी घटनाओं के विरुद्ध लोग खुलकर चर्चा कर सकेंगे।”(8)
गांधीजी के लिए इस लेख का शीर्षक था – ‘बलात्कार के समय क्या करें?’ इस लेख में गांधी आगे लिखते हैं – ‘जिस स्त्री पर इस तरह का हमला हो, वह हमले के समय हिंसा-अहिंसा का विचार न करे। उस समय आत्मरक्षा ही उसका परम-धर्म है। उस समय उसे जो साधन सूझे उसका उपयोग कर उसे अपने सम्मान और शरीर की रक्षा करनी चाहिए। ईश्वर ने उसे जो नाखून दिए हैं, दांत दिए हैं और जो बल दिया है वह उनका उपयोग करेगी और उनका उपयोग करते-करते वह जान दे देगी। जिस स्त्री या पुरुष ने मरने का सारा डर छोड़ दिया है, वह न केवल अपनी ही रक्षा कर सकेंगे, बल्कि अपनी जान देकर दूसरों की रक्षा भी कर सकेंगे।(9)
हालांकि गांधी यह भी मानते थे कि महिलाओं को स्वयं में निर्भयता, आत्मबल और नैतिक बल भी पैदा करनी होगी। जैसा कि वे 14 सितंबर, 1940 को ‘हरिजन’ में लिखते हैं कि ‘यदि स्त्री केवल अपने शारीरिक बल पर या हथियार पर भरोसा करे, तो अपनी शक्ति चुक जाने पर वह निश्चय ही हार जाएगी।”(10) इसलिए जान देने की प्रेरणा या इसका साहस होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन वह पहले ही हार मानकर आत्महत्या के रूप में न हो, बल्कि एक सम्मानजनक जीवन की चाह में लड़ते-लड़ते जान देने के अर्थ में हो।
19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलन के प्रयास परम्परागत पारिवारिक ढाँचे में ही स्त्रियों की स्थिति सुधारने तक सीमित थे। किन्तु 19वीं और20वीं शताब्दी के सन्धि – काल पर स्त्रियों का एक छोटा समूह अपने घरों से बाहर समाज कल्याण के लिए स्वेच्छा से निकला–” 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में महिला संगठनों का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने राजनीतिक अधिकारों की माँग शुरू की। 1917 में श्रीमती सरोजनी नायडू के नेतृत्व में भारतीय महिलाओं के एक प्रतिनिधि मंडल ने ब्रिटिश पार्ल्यामेंट में पुरुषों के  समानता के आधार पर स्त्रियों के मताधिकारो के लिए माँग पेश की। 1919 के सुधार अधिनियम ने केवल उन स्त्रियों को मताधिकार दिया जो सम्पन्न तथा शिक्षित थी।”(11)
गांधी जी स्त्रियों को घर की चार दिवारी में रहने के हिमायती नहीं थे। वो बखूबी जानते थे कि भारत  तभी आज़ाद हो सकता है जब इस देश की साहसी स्त्रियाँ घरों से निकलकर स्वराज्य प्राप्ति के लिए कर्मरत न हो। यह गांधी जी का ही प्रभाव था कि फैशन की पुतलियाँ समझी जाने वाली लड़कियों, महिलाओं तक ने विदेशी वस्तुओं का त्याग कर स्वदेशी अपनाकर देश की आज़ादी की राह को सशक्त बनाया। गांधी  जी का मानना था जिस प्रकार स्वराज्य प्राप्ति का अधिकार पुरुषों का है, उसी प्रकार इस पर स्त्रियों का भी है। यंग इंडिया के अगस्त अंक में वो लिखते हैं-“स्वराज्य की विजय में हिंदुस्तान की स्त्रियों का उतना ही हिस्सा होना चाहिए जितना पुरुषों का। यह भी सम्भव है कि इस शांत लड़ाई में स्त्री पुरुष से बाजी मार ले जायें और उसे कोसों पीछे छोड़ दें।….. “(12)
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि गांधी  जी ने स्त्रियों के राजनीतिक अधिकारों की वकालत दो बिंदुओं पर की थी। पहली, यह कि स्त्रियाँ पुरुषों से किसी भी तरह कम नहीं थी। दूसरी, यह कि उनके राजनीति में आने से निश्चित तौर पर स्त्री सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त स्त्रियों की दयनीय दशा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन समस्त बुराइयों का विरोध किया जो स्त्री जाति  के विकास और उन्नति के मार्ग में बांधक थी। गांधी जी का महिलाओं की आत्मशक्ति पर अटूट  विश्वास था और वे समानता के आधार पर सामाजिक अधिकार देना चाहते थे। स्त्रियों को गांधी जी पुरुषों से अच्छा सत्यग्रही मानते थे और उनके राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। गांधी  जी का मत था कि स्त्री हो या पुरुष तभी प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं जब दोनों एक-दूसरे के अच्छे गुणों को आत्मसात करें। काका साहेब कालेलकर जी के शब्दों में “इसमें सन्देह नहीं कि गांधी  युग के साथ स्त्री-जागृति के एक खास युग का आरंभ होता है। गांधी  जी का आदर्श यह था कि पुरुष पुरुष रहते हुए स्त्री बने और स्त्री स्त्री रहते हुए पुरुष बने। पुरुष के स्त्री बनने का अर्थ यह है कि वह स्त्री की नम्रता और विवेक सीखें और स्त्री के पुरुष बनने का मतलब है कि वह अपनी भीरुता छोड़कर हिम्मतवाली और बहादुर बन जाये।”(13)

सन्दर्भ ग्रन्थ :-
1) गांधी , हरिजन 1947
2) यंग इंडिया, जुलाई 1921 पेज 229
3) यंग इंडिया, जुलाई 1921 पेज 229
4) काका कालेलकर साहेब, बापू के पत्र 1 : आश्रम की बहनों को, पेज 12
5) यंग इंडिया, सितंबर1921 पेज 292
6) हरिजन, मई 1936, पेज 93
7) सत्यग्रह ऑनलाइन पत्रिका
8) गुजराती हरिजनबन्धु, 1942
9) गुजराती हरिजनबन्धु, 1942
10) गुजराती हरिजनबन्धु, 1942
11) भारत में महिलाओं की स्थिति सम्बन्धी राष्ट्रीय समिति की रिपोर्ट (1971-74) पेज 114
12) यंग इंडिया, 11 अगस्त 1921
13) काका साहेब कालेलकर,”बापू के पत्र 1: आश्रम की बहनों को ,पेज 16

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *