नहीं मनती दिवाली अब घर पर
कहाँ से शुरू करें
बल्बों की झालर लेकर
घर की छत के कोने-कोने में
अब कोई नहीं घूमता… …
पेचकस, टेस्टर, सेलो टेप लेकर
दो तीन बिजली के झटके खाकर अब
इलेक्ट्रिशियन कोई नहीं बनता… …
मुर्गा ब्रांड पटाखे और बिजली बंब
दूर किसी थोक की दुकान से
अब कोई नहीं लाता
पिछली दिवाली के बचे पटाखे
अब कोई धूप में नहीं सूखता
घर की चौखट, जंगलों पर
अब कंदील कोई नहीं लगता… …
सबके साथ बैठकर फ्रिज से अलग-अलग मिठाई
उन पर लगे सिल्वर पेपर, काजू, किशमिश
अब कोई नहीं खाता…
गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर ढल्लुआ में खील-बताशे
और वो
खांड के बने मोर, हाथी, घोड़े रखकर
अब कोई प्रसाद नहीं बाँटता… …
भैया दूज पर गोला और मिश्री की कटोरी लेकर
कोई बुआ, दीदी
अब नहीं आती… …
दिवाली बीत जाने की उदासी
गली के दोस्तों को इक्कठा करके
बचे पटाखों के बारूद को निकाल कर
अब कोई नहीं जलाता… …
रात भर छत पर जले दिये, केंडेल
सुबह – सुबह जाकर अब कोई नहीं बीनकर रखता
बूढ़े दादा – दादी की कहानी
दिवाली की रात
रज़ाई में दुबक कर अब कोई नहीं सुनता
माँ – बाप को
सामान नहीं… … समय देकर कोई सम्मान नहीं देता
उनके जीवन भर के किस्से अब कोई नहीं सुनता
रोशनी से जगमगाते इस शहर में
अब कोई किसी की नहीं सुनता
नहीं मनती अब दिवाली घर पर…
कुछ कहते हैं यह सब आज भी होता है
पर कहाँ दिवाली मनती है घर पर
कोई नहीं बताता… … … !