यह दोनों गीत 1987 में लिखे गए थे । इन गीतों की एक पृष्ठभूमि थी । डॉ. धर्मवीर भारती ने इन दोनों गीतों को धर्मयुग के 15 मार्च 1987 अंक में पृष्ठ 19 पर छापा था । आज पत्रिकाओं के पुराने पन्नों को पलटते हुए अचानक यह गीत मिल गए । आपके सम्मुख इनको उपस्थित कर रहा हूं –
                                                   ( 1 )
एक पल के लिए
उसने ऐसे छुआ
मन त्रिवेणी हुआ
गंगा-यमुना सदृश प्राण लहरा गए
लाज से लाल वो —
लौनी लौनी हुई
मूक वाणी हुई
भाषा बौनी हुई
कंपकंपाये अंदर , गीत बौरा गए
बन्ध संकोच के
खोलती-खोलती
अंग-प्रत्यंग से
बोलती-बोलती
बोल ऐसे कि सर्वस्व बिखरा गए
उसने ऐसे छुआ
मन त्रिवेणी हुआ
गंगा-यमुना सदृश प्राण लहरा गए।
                                      ( २ )
चंदन घोल गई है मन में
उस चितवन की छुअन अजाने
तृषित हृदय में तृष्णा जागी
जनम जनम की पीर जगाने।
उसकी सुधियां मंत्रों जैसी
थिरक उठी अंधरों पर अविरल
गीतों में ढल गयी ज़िन्दगी
छन्दों में विंध गया हर एक पल।
सुप्त पड़ी हृद तंत्री को वो
छेड़ गई जाने-अनजाने।
एक समूचे देवालय-सा
यह यह महके पावन यौवन
मधुवन-मधुवन गंध उसी की
रूप उसी का दर्पण- दर्पण
जैसे तुलसी रचे राम-रंग
ऐसे रंग वो रची रचाने।
चन्दन घोल गई है मन में
उस चितवन की छुअन अजाने।

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