भारतीय सिनेमा अपने सौ वर्ष पूरे करने के साथ साथ निरंतर समृद्धशाली होता जा रहा है। उसने लगभग हर विषयों पर फिल्म बनाकर हम सबका न केवल मनोरंजन किया है बल्कि हमें ऐसे कई विषयों के बारे में सूचित और शिक्षित भी किया है जिसकी जानकारी से पूरे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। मगर जब भी सिनेमा में बाल फिल्मों की बात आती है तो हमें थोड़ी सी निराशा अवश्य होती है। कारण स्पष्ट है बाल फिल्मों का निर्माण अन्य विषयों की भांति उतनी अधिकता में नही हुआ है और अगर जो हुआ भी है तो उन्हें उतना प्रचार प्रसार नहीं मिल पाया है। ऐसी स्थिति के कारण ही वे निर्माता/निर्देशक भी पीछे हटते नज़र आते है जो बाल फिल्मों के निर्माण में रूचि रखते हैं। सिनेमा के इतिहास को देखे तो आरम्भ में तो इनका अभाव सा ही दिखता है।

हाँ, हाल के कुछ वर्षों में अवश्य ही कुछ अच्छी फिल्मों का निर्माण हुआ है जिसमें तारे जमीं पर, स्टेनली का डब्बा, आई एम कलाम, भूतनाथ, पाठशाला, नन्हे जैसलमेर, थैंक्स माँ, फरारी की सवारी, अपना आसमान, बम बम बोले आदि फ़िल्में मुख्य हैं। मगर फिर भी इन्हें उतना प्रोमो नहीं मिल पा रहा है जितना की मिलना चाहिए। जबकि आज जिस तरह से फिल्मों में सेक्स और हिंसा परोसा जा रहा है उससे बच्चों के दिलों दिमाग पर प्रतिकूल असर ही देखने को मिल रहा है जिसके परिणामस्वरुप हम आजकल समाज में बढ़ रहे बाल अपराधों की संख्या को देख सकते हैं। निसंदेह ऐसी स्थिति में फिल्म प्रमाणन बोर्ड को सोचने की आवश्यकता है की इस तरह की फिल्मों के निर्माण पर सख्ती बरते और साथ ही बाल फिल्मों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दें ताकि हमारे देश के बालक, किशोर व युवा फिल्मों से प्रभावित होकर किसी गलत रास्ते पर न चलने लगे। क्योकि सिनेमा का जादू हमारे समाज में इस कदर छा चुका है की क्या बच्चे, क्या बूढ़े और क्या जवान। सभी इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। सब पर इसका जादू सर चढ़ कर बोल रहा है। फिल्मों में फैशन, स्टाईल, नशीले पदार्थो का सेवन, मारधाड़ और क्राइम आदि जिस अंदाज से दिखाया जाता है उसे समाज में अपनाने की मानों होड़ सी लगी हुई है। खास तौर से युवा जो उसे अपनाकर अपने आप को सबसे अधिक माडर्न दिखलाने में सभी से आगे ही रहना पसंद करते हैं और इसी चक्कर में वे कब धीरे धीरे ही सही कब गलत राह पर निकल पड़ते हैं उन्हें खुद पता ही नहीं चलता। इसी क्रम में बच्चे अब साइलेंट की जगह वायलेंट की परिभाषा रटने में लगे हुए है। जिससे समाज में कम आयु के बच्चों में भी अपराध की प्रवृति धड़ल्ले से पनप रही है। इन्ही सब कारणों से फिल्म प्रमाणन बोर्ड को अत्यधिक जागरूक होने की आवश्यकताहै।
वहीँ बाज़ारीकरण के दौर में अंधाधुध दौड़ते आजकल के फिल्मों के निर्माता/निर्देशक बाल फिल्मों में पैसा शायद इसलिए नहीं लगाना चाहते क्योंकि ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पैसा वसूलने की गारंटी नहीं देती। वहीँ दूसरी फिल्मे बेहद औसत दर्जे की होते हुए भी अपने फूहड़ और द्विअर्थी संवादों के साथ सेक्स और हिंसा की चासनी में डूबकर करोड़ो की कमाई कर जा रही है। फिल्म ग्रैंड मस्ती इसका सबसे अच्छा उदहारण है। फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ के लेखक और ‘स्टैनली का डब्बा’  के निर्देशक ‘अमोल गुप्ते’ ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, कि ”हमारे यहां बच्चों के लिए बहुत ही कम फिल्में बनती हैं। इसी बात से पता चल जाता है कि हम बच्चों की कितनी इज्ज़त करते हैं। हमारे यहां बच्चों को बच्चा समझ कर काट दिया जाता है। हमें लगता है बच्चे तो बस चाकलेट और टॉफ़ी में ही खुश हैं। जिस दिन हम बच्चों से गाढ़ी दोस्ती कर लेंगे, उस दिन एक नया सूर्योदय होगा। सिनेमा 21वीं सदी की नई कला है। सिनेमा सारी कलाओं का मिश्रण है और ये उभर रहा है। बच्चे अगर इस कला में रूचि ले रहे हैं तो उनकी रूचि को बढ़ाने के लिए हमें उन्हें अच्छा सिनेमा दिखाना ज़रूरी है।  अमोल गुप्ते, चार्ली चैपलिन की ‘द किड’ फिल्म और माजिद मजीदी की फिल्म ‘चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवेन’ देखने की सलाह देते हुए कहते हैं कि ये दोनों ही फिल्में बेहद ही खूबसूरत एवं दिल को छू लेने के साथ साथ सच्चाई के बेहद करीब भी है।”

पहले की फिल्मों में हमने बच्चों को ‘बच्चे मन के सच्चे’ गाने को गाते सुना था किंतु आज भूमंडलीकरण के कोख से जन्मे बच्चे के बोल ‘छोटा बच्चा जान के हमको ना समझाना रे‘ हो चुका हैं जो अपने आगे किसी और की बातों को मानने व सुनने को जल्द तैयार ही नही होते और तो और जिस युग में ‘चार बोतल वोतका काम मेरा रोज़ का’ और ‘लैला तेरी ले ले गी तू लिख के लेले’ गानों को देखते-सुनते बालक बड़ा हो रहा है तो इससे उनके मन मस्तिष्क का विकास किस प्रकार से हो रहा है, इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। ऐसे समय में उन निर्माता/निर्देशकों की प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए जो अच्छी से अच्छी विषयों पर बाल सिनेमा का निर्माण कर हमारे समाज में एक अलग सोच व जागरुकता फैलाने का निरंतर कार्य कर रहें हैं। भले ही फ़िल्म उद्योग या अन्य स्रोतो से उन्हें उतना सहयोग मिला हो या न हो कम से कम इन्होनें बाल सिनेमा की तरफ़ हम सबका ध्यान तो आकर्षित किया। इस कारण वे सराहने के योग्य तो हैं ही। और इस श्रेणी में हम जिन फ़िल्मकारों और उनकी फ़िल्मों को प्रमुख रूप से पाते है उनमे मुख्य हैं- आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीं पर’, ‘डिस्लैक्सिया’ से पीड़ित एक मंदबुद्धि बच्चे की कहानी को बयां करता है इस फ़िल्म ने इस बीमारी की समस्या को जिस अंदाज़ से प्रस्तुत किया है उससे हिंदी सिनेमा में इस तरह के रोग के प्रति हमे जागरूक तो किया ही साथ ही अपने विषयगत प्रस्तुतीकरण के कारण पूरे समाज को काफ़ी भावुक भी किया। वहीँ ‘आई एम कलाम’ फिल्म हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.कलाम के भाषण पर आधारित एक गरीब राजस्थानी लड़के छोटू की कहानी है, जो उनका भाषण सुनने के बाद उनसे काफी प्रभावित होता है साथ ही अपने जीवन में काफी बदलाव के साथ जीता है और दूसरों को भी उनके भाषणों से प्रभावित करने की हर संभव कोशिश भी करता रहता है। इसके साथ ही बी.आर.चोपड़ा की फिल्म, ‘भूतनाथ’ जो भारतीय परिवारों के बिखरते मूल्यों को दर्शाता है तो वहीं मुंबई की झुग्गियों पर आधारित इरफान कमल की फिल्म ‘थैंक्स माँ’ में आवारा और अनाथ बच्चों के बचपन की दयनीय स्थिति को बतलाता है। इस फिल्म में एक अनाथ बच्चा की कहानी है जो दूसरे आवारा और अनाथ बच्चों के साथ वह पॉकेटमारी कर अपना गुजारा करता है। एक बार बाल सुधार गृह से भागते समय उसे एक नवजात बच्चा मिलता है जिसकी देखभाल वह खुद करता है साथ ही अंत में वह उस बच्चे की माँ को ढूढने में सफल हो जाता है, लेकिन जब उसे सच का पता चलता है कि उस नवजात बच्चे को उसकी माँ ने ही वहां छोड़ा था तो वह आश्चर्यचकित रह जाता है। वहीँ ‘स्टेनली का डिब्बा’  फिल्म अमोल गुप्ते द्वारा निर्मित लगभग 10 वर्षीय बच्चे के टिफिन बॉक्स को केंद्र में रखकर बनी ऐसी फिल्म है जिसमें गरीब बच्चों के साथ लंच के समय होने वाले व्यवहार को दर्शाता है। फिल्म ‘पाठशाला’ में   बच्चों के भविष्य के साथ हो रहे पढाई के नाम पर पब्लिक स्कूलों के मनमाने रवैये से पैसे वसूलने आदि बातों को दिखाने की कोशिश की गई है। इसके अतिरिक्त अजय देवगन की फ़िल्म राजू चाचा,  बच्चों की पढाई पर आधारित फिल्म ‘नन्हें जैसलमेर’, राहुल बोस की ‘चेन कुली की मेन कुली’, एनिमेटेड फ़िल्मों में अनुराग कश्यप की ‘बाल गणेश’, ‘माई फ्रेंड गणेशा’, ‘रिटर्न ऑफ हनुमान’, ‘मकड़ी’ अपने नयेपन के लिए तो विशाल भारद्वाज की ‘ब्लू अंब्रेला‘ हमें संवेदना के स्तर पर बहुत अधिक प्रभावित करता है जैसी फिल्में भी बनी। तो वहीँ फिल्म ‘चिल्लर पार्टी’ छोटे-छोटे बच्चों के ऐसे ग्रुप की कहानी को बतलाता है जिसमें एक आवारा कुत्ते की जिन्दगी को बचाने के लिए अपने स्तर पर हर संभव प्रयास करने की स्थिति को बड़े रोचक ढंग से दिखलाया है। प्रियदर्शन की फिल्म ‘बम बम बोले’ में एक भाई बहन के बीच जूते गुम होने के बाद की स्थिति की मार्मिक घटना वाली कहानी को भी बच्चों ने बहुत पसंद किया। विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी  ‘फरारी की सवारी’ में पिता-पुत्र के संबंधो का मार्मिक चित्रण किया है जिसमे पिता अपने पुत्र के समक्ष हर वक्त आदर्शवादी व्यवहार के साथ जीता है और वह चाहता है पुत्र भी उसका ठीक वैसा ही अनुसरण करे । वहीं ‘नील बटे सन्नाटा’ में एक माँ और बेटी की कहानी है जिसमें दोनों एक ही कक्षा में पढ़ने जातीं हैं। कम पढ़े लिखे माँ-बाप अपने बच्चे को पढ़ा लिखाकर बड़ा इंसान बनाना चाहतें हैं मगर उनकी औलाद किस तरह की सोच रखती है इसे बड़े बेहतरीन तरीके से दिखलाया गया है। कुल मिलाजुला कर कहें तो इन सभी फिल्मों ने करीब करीब ठीक ठाक ही अपना बिजनेस किया और समाज पर इन सभी फिल्मों का काफी सकारात्मक प्रभाव भी हम देख सकते हैं। मगर अन्य फिल्मों की तरह कभी भी बड़े स्तर पर चर्चें में नहीं आ पातीं। इन सभी फिल्मों पर चर्चा/परिचर्चा भी कहीं जल्दी देखने को नहीं मिलती। यही बात सबसे ज्यादा खटकती है। 

भूमंलीकरण और अत्याधुनिक यंत्रों के इस दौर में हम जहां मीलों दूर बैठे लोगो से तो नजदीक होते जा रहे है वही अपने घर-परिवार और आसपास से उतने ही अधिक दूर होते जा रहे हैं। खास तौर पर बच्चे जो पहले दादी-नानी की कहानियों के जरिये ही सही कम से कम परिवार के बड़े सदस्यों के साथ जुड़े तो रहते थे किन्तु आजकल के बच्चे फेसबुक, ट्विटर और वाट्सअप की दुनिया में खोते जा रहें हैं। इसी क्रम में सिनेमा में बाल सिनेमा का समुचित निर्माण न होना और होना भी तो उनकी तरफ ज्यादा ध्यान न देना भी एक चिंता का विषय बनता जा रहा है। अब सिनेमा में फूहड़पन और अश्लीलता अपना एकाधिकार ज़माने में लगे है। जबकि एक समय सिनेमा एक ऐसा माध्यम उभरकर सामने आया था जिसके कारण घर-परिवार के सदस्य साथ बैठकर एक साथ फिल्म देखते थे साथ ही साथ मिलजुल कर रहने की भावना भी बढ़ती थी, और जिससे बच्चे निरंतर कुछ न कुछ नई और अच्छी बातें भी सीखते रहते थे किन्तु अब इन सबका निरंतर अभाव ही हमें देखने को मिल रहा है। जो किसी भी परिवार के साथ-साथ उनके बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। इस कारण देश व समाज के हित में ज्यादा से ज्यादा अच्छी से अच्छी फिल्मों के साथ बाल फिल्मों के निर्माण पर जोर देना सरकार के साथ साथ हम सब का भी उत्तरदायित्व बनता है की हम सब ऐसे फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन अवश्य दे। जिससे देश और समाज के भविष्य को स्वर्णिम भविष्य बनाया जा सके।

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One thought on “सिनेमा के आईने में बच्चे और उनका भविष्य”

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