लोक संवेदनाओं के कलेवर में लिपटा काव्य संकलन ‘ये गाड़ियां लुहार’
समकालीन हिंदी साहित्य में लोक चेतना विषय से जुड़कर लिखने वाले लेखकों की कमी ही रही है। विज्ञान और तकनीकी के युग में यह चेतना नष्ट प्राय: होती जा रही है। यह हमारी संवेदनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। हमारी लोक चेतना को जाग्रत करने में वर्तमान साहित्यकार असमर्थ रहा है। आज साहित्यकार की चिंतन दृष्टि बिकाऊ या फुटपाथी साहित्य पर टिकी हुई है। समाज में अश्लील साहित्य को स्थान मिल रहा है।
साहित्य की लोक चेतना उतनी ही प्राचीन है जितना कि मनुष्य का प्रकृति से रागात्मक संबंध। मनुष्य की संवेदनाएं उसे मुख्य और महत्वपूर्ण बनाती है। भारत की आधी आबादी ग्रामीण समुदायों में निवास करती है या शहर से सटे इलाकों में निवास करती हैं। जहां सुविधाओं के नाम पर अभाव, बेबसी और कभी न खत्म होने वाली दास्तां है। आज हमारा आस्था और जीवन मूल्यों से विश्वास उठ चुका है। लेकिन हरिराम का ‘ये गाड़िया लुहार’ कविता संग्रह हमें जनजीवन से जोड़ता है। हमारी संवेदनाओं को कुरेदने का काम करता है।
112 पृष्ठों में बंटा काव्य संकलन ‘ये गाड़ियां लोहार’ में उनसठ कविताएं हैं, जिनका फलक स्वं से लेकर पर तक व्याप्त है। प्रत्येक कविता जनजीवन को स्पर्श करती है। लोक संवेदनाओं से भरा यह काव्य संकलन अद्भुत है। इस कलश रूपी संकलन की कविताएं अपने आप में अप्रतिम है। इसमें एक विशेष व्यक्ति की भव्य अभिव्यक्ति नहीं वरन् लोक अभिव्यक्ति का साक्षात आईना है। कवि ने समाज की धधकती वेदना को संबोधित किया है। लोक जीवन की स्पंदन को समझना सबके वश की बात नहीं है। सामाजिक पारिवारिक मूल्य ही उसका जैविक खाद है। लोक साहित्य ही एक ऐसा साहित्य है जो मानवीय रिश्तों को मधुर बनाता है। मनुष्य की मनुष्यता को बचायें और बनाये रखता है। वह मनुष्य को जनजीवन से जोड़ता है वह ‘बहुजन सुखाय बहुजन हिताय’ के लक्ष्य की पूर्ति करता है।
‘ये गाड़ियां लोहार’ काव्य संकलन गाड़ियां लोहार समुदाय के बारे में बताता है। यह समुदाय अति वंचित और गरीब है जो मुख्य रूप से शहर एवं उसके आसपास के क्षेत्र की बस्तियों में बहुत बुरी स्थिति में निवास करता है। दिल्ली में ‘गाड़ियां लोहार’ समुदाय पर जानकारी और आंकड़ों की जबरदस्त कमी एवं सरकार द्वारा उनके मानवाधिकारियों की अनदेखी देखी गई है। ‘गाड़िया लोहार’ समुदाय ऐतिहासिक रूप से चित्तौड़गढ़, राजस्थान का एक घुमंतु समुदाय है जो वर्तमान में दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश,पंजाब और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ भारत के विभिन्न राज्यों में निवास करता है। यह छोटे स्तर पर लोहे के यंत्र, बरतन तथा अन्य वस्तु बनाकर अपनी गाड़ी में (जिसे गाड़ियां कहा जाता है), बेचते हैं जिससे इनका जीविकोपार्जन होता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली एनसीआर की लगभग 90 बस्तियों में ‘गाड़ियां लोहार’ समुदाय निवासरत है। यह बस्तियां मुख्ता सड़क के किनारे और ऐसे फुटपाथ पर बसी हैं जहां से यह अपना व्यवसाय कर सकें। हालांकि यह समुदाय शहर की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है फिर भी ये लोग निरंतर जबरन बेदखली के शिकार हैं। यह समुदाय बिना पर्याप्त और आधारभूत सुविधाओं के निवास करते हैं।
हरिराम की कविताएं एकदम गांव देहात का चित्रण करती हैं। सरल-सहज भाषा में बहुत गंभीर बातों को बताने की कोशिश कवि ने की है। कवि ने पाठक को गांव से जोड़ने की भरपूर कोशिश की है। उनकी कविताओं को पढ़कर लगता है कि कवि समाज को लेकर चिंतित हैं और समाज में नवीन चेतना जागृत करना चाहते हैं। कविताएं बेहद सरल और बोधगम्य हैं, क्योंकि ये जनजीवन और गांव की प्राकृतिक छटा से अवगत से कराती हैं। ये हमें ऐसे परिवेश से जोड़ती हैं जो हमें बताता है कि हमारे समाज में कुछ लोगों को दो जून की रोटी की समस्या अभी तक भी बनी हुई है। कुछ सालों पहले जीवन सरल था, लेकिन आज भी लोक कलाकारों को दो जून की रोटी के लिए सोचना पड़ रहा है। और उन्हें दो जून की रोटी में मयस्सर नहीं है। गाड़ियां लुहार सालों से लोहा पीटने के काम को करते आ रहे हैं और अपने जीवन में खुश हैं। कविताओं से समाज की बारीकियां सीखने को मिलती हैं। कविताओं में जनजीवन से आगे देहाती-लोक समाज और संस्कृति से जुड़ने का अवसर मिलता है। कवि को लोक कवि के रूप में माना जाए या समझा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा।
कवि की समझ और चिंता समाज को लेकर है। बहुत ही अच्छी कविताएं पाठकों को मिली हैं, मैं समझती हूं कि कवि ने इसमें अपने व्यक्तिगत प्रसंग को नहीं उठाया है बल्कि उन्होंने समाज की समस्याओं को उठाया है। और आज यह बिल्कुल सही बात है कि हमारे समाज में जो गाड़ियां लुहार, कलाकार और नट हैं, इस समय उनके जीवन में वास्तविक रूप से समस्या आ रही है क्योंकि हमारे समाज में लोक कलाएं एवं लोक नृत्य समाप्त होते जा रहे हैं। लोक संस्कृति समाप्त होने की स्थिति में है, हमें फिर से अपनी जड़ों में लौटना होगा। फिर से पीछे जाना होगा और फिर हमें उन चीजों को जीवन पर जिंदा करना होगा। क्योंकि हम सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यदि हमें किसी भी तरह की समस्या आती है तो हमें सभी को मिलकर इसका समाधान निकालना होगा। हम सभी मिलकर समाज को जागरूक और शिक्षित कर इन लोक कलाओं को दोबारा से जागृत करें विकृत करें। आज हम आधुनिकीकरण की तरफ दौड़ रहे हैं। टेलीविजन, सोशल मीडिया की तरफ ज्यादा जुड़े हुए हैं। हम अपनी लोक कलाओं को महत्व नहीं देते। यह सब हमारी समस्या ही है। हमें मानवी जनजीवन और लोक कलाओं से जुड़ना चाहिए। इन सबके बारे में कविताएं बताती हैं, यह एक बहुत बड़ी सामाजिक विडंबना है कि हम उन सभी चीजों की तरफ हम ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमें अपनी जड़ों में लौटना होगा, हमें दोबारा इन सभी चीजों को जीना होगा और इसके लिए प्रयास करना होगा। कवियों, सामान्य लोगों, कलाकारों और जो समाज के ऐसे तब के हैं जो लोक संस्कृति को उकेरने का काम करते हैं ऐसे लोगों की समाज को जरूरत है ।लेकिन ये लोग हाशिए पर आ चुके हैं। बेशक इनमें टैलेंट है, पर वे हाशिए पर आ गए। आज के समय में उपभोक्तावाद की जो परंपरा चल पड़ी है उसे खत्म करना होगा। उनकी कविताएं बताती हैं कि हमें अपनी जड़ों में वापस लौटना होगा हमें इन चीजों को फिर से जिंदा करना चाहिए।
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