पत्थरों के इस शहर में आइने-सा आदमी, ढूँढने निकला था खुद को चूर होता आदमी। चिमनियाँ थीं, हादसे थे, शोर था काफी मगर, इस शहर की भीड़ में कोई नहीं था आदमी। तन जलेगा, मन जलेगा, घर जलेगा बाद में,… Read More

पत्थरों के इस शहर में आइने-सा आदमी, ढूँढने निकला था खुद को चूर होता आदमी। चिमनियाँ थीं, हादसे थे, शोर था काफी मगर, इस शहर की भीड़ में कोई नहीं था आदमी। तन जलेगा, मन जलेगा, घर जलेगा बाद में,… Read More
बंदूकें तुम्हें भले ही भाती हो अपने खेतों में खड़ी बंदूकों की फसल लेकिन- मुझे आनन्दित करती है पीली-पीली सरसों और/दूर तक लहलहाती गेहूं की बालियों से उपजता संगीत। तुम्हारे बच्चों को शायद लोरियों सा सुख भी देती होगी गोलियों… Read More