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फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा ने एक बार फिर महत्वपूर्ण व सामयिक मुद्दे पर गंभीर व संवेदनशील फिल्म बनाई है। उत्तर प्रदेश के बैकड्राप पर दलितों के प्रति भेदभाव के मुद्दे को इसमें अच्छे ढंग से दिखाया गया है। हमारी हिन्दी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय भेदभाव किस कदर हावी है उसको ये फिल्म शिद्दत से रेखांकित करती है।

फिल्म का सबसे प्लस प्वाइंट इसकी कहानी है। लेखक गौरव सोलंकी ने बढ़िया प्लाट चुना है। कहानी का तानाबाना भी अच्छा बुना है। फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के लालगांव की है।वहां पर आईपीएस अधिकारी अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की नयी-नयी पोस्टिंग होती है। इसी दौरान लालगंज के दलित टोला की तीन लड़कियां गायब हो जाती हैं। वहीं पुलिस लीपापोती में लग जाती है। दो दिन बाद दो लड़कियों की लाश पेड़ पर लटकी हुई मिलती है। पुलिस इसे आॅनर किलिंग का नाम देती है लेकिन अयान को जांच करने के दौरान पता चलता है कि हकीकत कुछ और ही है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में महिला डॉक्टर दोनों लड़कियों से सामूहिक दुष्कर्म की बात लिखती है तो एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी (मनोज पहवा) उसे धमकाता है कि वो ये बात रिपोर्ट में ना लिखे। वहीं अयान लेडी डॉक्टर को विश्वास में लेकर तथा उसे सुरक्षा का आश्वासन देकर सही रिपोर्ट लिखने के लिए कहता है।

ताकतवर तय करते हैं औकात
जातिवादी मानसिकता और किसी भी कीमत पर वर्चस्व बनाए रखने की जिद्द में अंशु आर्या नाम का दबंग महज तीन रुपये ज्यादा दिहाड़ी मजदूरी की मांग करने पर लड़कियों का गैंगरेप करता है और उनमें से दो को मार कर गांव के पेड़ में लटका देता है। एक खास तबके का खुद को श्रेष्ठ दिखाने का यह जरिया है और उनलोगों (दलित) को उनकी औकात बताने का. जो उन्होंने तय की है। इस अंशु नाम के दबंग गुंडे को राज्य सरकार का
संरक्षण मिलता है इसलिए उसके लिए गैंग रेप के बाद लड़कियों की हत्या मामूली सी बात है। वो बेफिक्र होकर रहता है वो सोचता है कि अपने राजनीतिक आका के रहते उसका कोई बाल भी बांका नहीं करेगा। जिस पुलिस को उसपर कार्रवाई करनी है उस पुलिस को तो वो अपनी जेब में समझता है। समझे भी क्यों नहीं जब पुलिस अधिकारी (मनोज पहवा) व अन्य पुलिस कर्मी भी लड़कियों के साथ दुष्कर्म में उसके सहभागी बनते हैं।

आयुष्मान का सधा हुआ अभिनय
कलाकारों के अभिनय की बात करें तो आयुष्मान खुराना ने बहुत बढ़िया काम किया है। नए नए आईपीएस
अयान सिंघम के अजय देवगन की तरह मारधाड़ किए बिना ही बड़े सलीके से ईमानदारी से अपनी ड्यूटी करते हैं। इसमें उसे परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है। सीबीआई जांच बैठती है। सस्पेंड भी कर दिया जाता है पर इन सब के बावजूद वो तीसरी लड़की को जिंदा बरामद करता है। इसके साथ ही लड़कियों से दुष्कर्म करने वालों का पता लगा कर उन्हें बेनकाब करता है और अपने पुलिस अधिकारी को भी गिरफ्तार करता है। हां ये सारी कवायद सत्ता में बैठे ताकतवर नेता के राजनीतिक दवाब को अनदेखा कर करता है।

फिल्म में दलितों के काम करने की अमानवीय परिस्थितियों को भी ऐसे ढंग से फिल्माया गया है कि दर्शक सोचने को मजबूर हो जाएं कि ये तो किसी मनुष्य के काम करने की स्थिति नहीं होनी चाहिए।

फिल्म के अंत में अयान अपने सहकर्मियों से पूछता है कि उन्होंने किस पार्टी को वोट दिया है। इस पर अलग अलग जातियों से जुड़े लोगों की प्रतिक्रिया बहुत ही शानदार पॉलिटिक्स सटायर पेश करता है। ये हमारे दौर के राजनीतिक दलों के वोट बैंक के लिए होनेवाले मतलब परस्त गठबंधनों की पोल खोलकर रख देता है।

फिल्म की कमजोरी इसकी धीमी गति है। कई दृश्य काफी लंबे है जो बोरिंग लगते हैं जैसे तीसरी लड़की को ढूंढने के लिए तालाब को खंगालना। वैसे भी पूरी फिल्म की गति ही स्लो है।
ये तो हुई फिल्म की बात। अब हम बात करते हैं हमारे संविधान के आर्टिकल 15 की जिसके इर्द-गिर्द फिल्म की कहानी घूमती है। अनुच्छेद 15 हमारे संविधान का बहुत ही महत्वपूर्ण भाग है। पहले इसे पढ़ लें

भारतीय संविधान अनुच्छेद 15 (Article 15 in Hindi) – धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध
(1) राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध के केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
(2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर–
(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
(ख) पूर्णतः या भागतः राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग,
के संबंध में किसी भी निर्योषयता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।
(3) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
[(4) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।]

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संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 2 द्वारा जोड़ा गया था

जातिगत आरक्षण, करेला वो भी नीम चढ़ा
संविधानिक प्रावधानों के मुताबिक समाज के वंचित और पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ देने की बात कही गई है। अब इसके लाभुकों को तय करने का आधार जाति को बनाया गया। इसने समाज में बहुत ही विभाजनकारी स्थिति बना दी है। इसने कई वर्षों के विकास को बेमानी कर दिया है जिसकी वजह से शहरी क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव धीरे धीरे खत्म हो रहा था।

अल्पकालिक व्यवस्था थी आरक्षण
आरक्षण वैसे भी एक अल्पकालिक और कामचलाऊ व्यवस्था थी। हमारे संविधान में भी एसटी व एससी को महज 10 वर्ष के लिए आरक्षण दिया गया था। कायदे से 1960 में इस खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन यह आरक्षण हटाने के बजाय नब्बे के दशक में पिछड़ों को भी आरक्षण दे दिया गया।

वैसे भी आरक्षण प्रतिभाओं को उपेक्षित करनेवाली व्यवस्था है। इसके साथ ही जाति आधारित आरक्षण तो करेले पर नीम चढ़ाने जैसा है। आरक्षण केवल विकलांगों को ही दिया जाना चाहिए।

एक तरफ हमारी सरकार औऱ प्रबुद्ध लोग कहते हैं की जातिवाद खत्म होना चाहिए। लोग जातिवाद को बुरा मानते हैं। कई राज्यों में जाति व्यवस्था तोड़ने के लिए अंतरजातीय विवाह करनेवाले जोड़ों को अनुदान राशि दी जाती है। यह अजब सी स्थिति है। वहीं दूसरी तरफ जाति को बनाए रखने के सारे उपाय किए जाते हैं। आप सरकारी नौकरी में आवेदन करना चाहे तो अपनी जाति बतानी होगी। अब तो जाति आधारित जनगणना भी होनेवाली है।

समानता के मौलिक आधार को ठेंगा
आरक्षण की व्यवस्था समानता के मौलिक अधिकार को ताक पर रखने की व्यवस्था है। ये दोनों व्यवस्थाएं साथ -साथ चलाने का कोई मतलब नहीं है। या तो समानता के मौलिक अधिकार को हटा दिया जाना चाहिए या जाति आधारित आरक्षण को।
यह अजीब विडंबनापूर्ण स्थिति है कि पहले हम यह तय करते हैं कि राज्य द्वारा केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।
हमने यह बहुत की तार्किक व भेदभाव रहित अनुच्छेद तो बना दिया, लेकिन इसमें इतना बड़ा छेद (अपवाद) कर दिया कि समानता का अधिकार बेमानी हो गया।

राज्य पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में जिनका, राज्य की राय में राज्य के अधिन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध कर सकती है।(अनु 16(4)।
हमारे माननीय जनप्रतिनिधियों ने इसी अपवाद का लाभ उठाकर समानता के मौलिक अधिकार को बेमानी कर दिया है। मंडल कमीशन की सिफारिश पर पिछड़े वर्ग को 27 फीसद आरक्षण केंद्रीय सेवाओं में दिया गया। इसके पहले से ही एसटी व एससी के लिए 23 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था आजादी के समय से चल रही थी। यानि कुल मिला कर केंद्रीय सेवाओं मे 50 फीसद आरक्षण जाति के आधार पर तय कर दिया गया। वहीं हमारे विभिन्न राज्यों क नेताओं ने तो और भी कमाल कर दिया है। तमिलनाडू व आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों मे करीब 80 फीसदी आरक्षण है। कई अन्य राज्यों में भी आरक्षण बढ़ाने के लिए दबाव बनाया जाता है। कई जातियां आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करतीं हैं अभी हाल में राजस्थान में गर्जरों ने आंदोलन चलाया था। उनका आंदोलन हिंसक भी हुआ कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।

कामकाज होता है प्रभावित
अब कुछ सवाल उठते हैं जिनका जवाब इन माननीयों को देना चाहिए। अगर 50 फीसदी से ज्यादा लोग योग्यता के बल पर नौकरियों में नहीं आएंगे तो सरकार के कामकाज पर असर पड़ेगा ही। इसके साथ ही एसटी व एसी को प्रोन्नति में भी आरक्षण दिया जाता है। आप अगर सामान्य वर्ग के अधिकारी हैं तो कुछ साल बाद आपसे जूनियर आपका बॉस बन सकता है। ऐसा इसलिए नही होगा कि वो काफी प्रतिभाशाली है या उसने इन चंद् वर्षों मे कोई विशेष योग्यता हासिल कर ली है या आपकी कार्यक्षमता में गिरावट आ गई है। ऐसी स्थिति महज इसलिए बन जाएगीं क्योंकि वह एसटी या एससी वर्ग से आता है।

इससे अनच्छेद 356 का उल्लंधन होता है जिसमें कहा गया है कि संघ या राज्य के क्रियाकलापों से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में, एसटी व एससी सदस्यों के दावों का, प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा। लेकिन हमारे इन महानुभावों को प्रशासन की दक्षता बनाए रखने से जरूरी लगता है कि उनका जाति आधारित वोट बैंक बरकरार रहे।

परिवार नियोजन हो जाता है बेमानी
एक सवाल औऱ एक तरफ हम परिवार नियोजन कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च कर रहे हैं। कोई भी जाति के सदस्य अपनी जनसंख्या क्यों कम करना चाहेंगे जब हमारे यहां सब कुछ संख्या बल पर ही तय करना है। जनसंख्या के आधार पर जातियों को नौकरियों मे आरक्षण मिलना है उनके लिए पंचायत, नगर निगम, विधानसभा व लोकसभा की सीटों का आरक्षण भी आबादी के आधार पर ही मिलना है तो कौन सा बेवकूफ समुदाय होगा जो अपनी सीटें कम करना चाहेगा।

अंत में एक जरूरी बात कि वंचित तबके( सिर्फ आर्थिक आधार पर गरीब ) को बिना जातिगत भेदभाव को दरकिनार कर रोटी, कपड़ा,मकान, शिक्षा, चिकित्सा व न्याय की सुविधाएं मिलनी चाहिए। लेकिन हमारी सरकारों को इतनी बड़ी आबादी के लिए ये सारी सुविधाएं मुहैया कराने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ेगी और इसमें लंबा समय लगेगा इसलिए आरक्षण का शार्टकट अपना कर लॉलीपॉप थमा दिया जा रहा है। इससे बहुत कम लोगों को वास्तविक लाभ मिलता है। पिछले सत्तर साल से एसटी एससी को दिए जा रहे आरक्षण ने इस समाज के बहुत छोटी आबादी को ही लाभ पहुंचाया है और कई परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ लेकर ऊंचे पदों पर पहुचने के बाद सामाजिक स्तर पर ऊंची हैसियत बना लेने के बाद भी दलित बने रहते हैं यह बहुत खतरनाक स्थिति है। इसे खत्म होना चाहिए।

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