value-and-its-practical-side

मूल्य जीवन का संचालक होता है। सकारात्मक और नकारात्मक मूल्यों से हम संचालित होते हैं। जीवन को उसकी श्रेष्ठता के साथ जीने का एक जरिया और एक पक्ष दोनों मूल्य है। मूल्य मनुष्य में निहित मानवीय पक्ष होता है, जो हमें संचालित करता है। हमारे व्यवहार को नियंत्रित करता है। मूल्य एक भाव और एक गुण है, जो हमें सही और गलत के मध्य विभाजक रेखा का ज्ञान कराता है। जरूरी नहीं हर वक्त हर स्थिति में मूल्यों (वैल्यू) को परम्परागत ढर्रे पर ही परखा जाए, कभी-कभी भाव और संवेदना के धरातल पर भी वह मूल्य मूल्यवान रहते हैं। हां, बशर्ते वह उसे अपनी इगो की कसौटी पर न परखें।

दरसअल हम मूल्यों के संरक्षण में खुद को इतना खपा दिए होते हैं, कि उनसे इतर हमारी सोच भी उनका अतिक्रमण करती जान पड़ती है। मूल्यहीन व्यक्ति भी सभ्य समाज के लिए घातक है। कुछ मूल्य जोकि मनुष्य को उसकी मनुष्यता के लिए आवश्यक होते हैं उनका रहना जरूरी है। उनके अभाव में एक हम समाज की व्यवस्थित कल्पना नहीं कर सकते। मूल्य जैसे कि नैतिकता, सत्य, मनुष्यता, संवेदनशीलता, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता, विवेकशीलता, बौद्धिकता, संतुलन इत्यादि की उपस्थिति से मनुष्य मनुष्य बनता है। किन्तु इनकी अधिकता होने से भी हमारी मनुष्यता प्रभावित हो जाती है। मूल्य सैद्धांतिक के साथ-साथ व्यावहारिक भी होने चाहिए। बिना व्यावहारिक हुए हम मनुष्य नहीं बन सकते। कभी-कभी हमें अपने सिद्धांतों की जगह मनुष्यता या संवेदनशीलता के आधार पर भी उनका मूल्य निर्धारित करते रहना चाहिए। जीवंतता, गतिशीलता के अभाव में ही जड़ता पनपती है। जड़ होना मतलब संवेदनहीन होना ।

व्यक्तित्व में इतनी गुंजाइश जरूर होनी चाहिए कि जिससे हमारी संवेदनशीलता और मनुष्यता भी बची रहे। महानता की कोई शर्त अतिशय मूल्य धर्मिता, जड़ता और कठोरता नहीं होती। महानता सहजता में भी पनपती है। आचार-विचार मानवीय होने चाहिए। अगर हमारे मूल्य किसी को असहजता की ओर और हमें संवेदनहीनता की ओर ले जाने लगे तो इतनी संभावना जरूर तलाशिए कि दोनों में सामंजस्य जरूर बन जाए। अगर कहीं उन मूल्यों को कुछ पल के लिए मानवीय करने की जरूरत पड़े तो जरूर उनमें भी एक अवसर छोड़े रखना चाहिए। ईमानदारी एक उच्च मानवीय मूल्य है। किन्तु कभी-कभी ऐसे भी संकट सामने आ जाते हैं, जब हम बिना उन मूल्यों की सात्विकता को भंग किए भी सामंजस्य बना सकते हैं। उस समय मनुष्यता और हमारे मूल्य दोनों का धर्म यही है कि हम उसे निभाएं, सहेजें। कभी-कभी यह मायने नहीं रखता कि हम पढ़े लिखे कितना है बल्कि यह मायने अधिक रखता है कि हम दूसरों की भावनाओं को कितना अधिक समझ पाते हैं। ठीक उसी तरह से यह जरूरी नहीं कि आप कितने मूल्यों को सहेजे हुए हैं खुद के लिए, किन्तु यह अधिक मायने रखता है कि उन मूल्यों से किसी का हित और भावनाएं कितनी प्रभावित हो रही है। खुद को महान बनाना कठिन हो सकता है किन्तु खुद को सजग बनाना उससे अधिक कठिन होता है। महानता या आपके भीतर मूल्यों का जमघट कितना है यह उतना प्रासंगिक नहीं होता, जितना कि किसी और को प्रासंगिक कर देना होता है। खैर, मूल्य को समझना और समझाना दोनों दो तथ्य हैं किन्तु मूल्य मानव जीवन और समाज के लिए जीवंतता और संवेदनशीलता के द्योतक जरूर है।

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