पूरा विश्व आज गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। देश विदेश में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक आयोजन होंगे। सरकारी कर्मचारियों में और अधिक ख़ुशी का माहौल होगा। अनेक सर्वेक्षण बताते हैं कि देश की 70 प्रतिशत आबादी गांधी जी का पूरा नाम नहीं जानती। जानना भी नहीं चाहिए, गांधीजी चाहते भी नहीं हैं की उनका कोई नाम जाने और न ही गांधीजी किसी एक व्यक्ति का नाम है, गांधी एक विचार धारा है और विचारधाराएँ कभी विलुप्त नहीं होती अपितु समय बीतने के साथ और भी परिपक्व होती रहती हैं। गांधी के बारे में काफी शोध के उपरांत मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि गांधी का जन्म 2 को अक्टूबर हुआ ही नहीं था। 2 अक्टूबर को 100 करोड़ आबादी में एक मोहन दास नाम का एक सामान्य व्यक्ति पैदा हुआ था। उस मोहन दास को पश्चिमी सभ्यता एवं तत्कालीन विलासिता की समस्त लालसा थी। वास्तव में 7 जून 1893 को अश्वेत होने की वजह से दक्षिण अफ्रीका के पीटरमेरिट्जबर्ग स्टेशन में मोहनदास करमचंद गांधी को जब ट्रेन  से धक्का देकर उतार दिया गया  था तब उस गांधी का जन्म हुआ जिसके विचार वर्तमान समाज में शांति एवं सौहार्द लाने के एकमात्र उपाय हैं।
आज महज 150 सालों में आइन्सटाइन की बात सच होते दिख रही की आने आने वाली पीढियां मुश्किल से यह भरोसा कर पाएंगी कि हाड़ और मांश से बना कोई ऐसा आदमी भी था। गांधी ने सदैव मानवता को सर्वोपरि रखा। गांधी का “हे राम” में भगवान कम भावनाएँ ज्यादा थी। एक प्रसंग है हिन्द स्वराज में जिसमे गांधी से गोरक्षा के बारे में उनके विचार पूछे जाते हैं। तब गांधी जवाब में कहते हैं कि “मैं खुद गाय को पूजता हूँ, यानि इज्जत करता हूँ। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि कृषि प्रधान होने के कारण उसकी संतान पर ही हिंदुस्तान का आधार है गाय सैकड़ों रूपों में हमारे लिए उपयोगी प्राणी है। उसकी उपयोगिता तो हमारे मुसलमान भाई भी स्वीकार करेंगे। पर जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे ही मनुष्य को भी तो पूजता हूँ, जैसे गाय उपयोगी है, वैसे ही मनुष्य भी उपयोगी है, फिर चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लडूंगा, उसकी हत्या करूँगा ऐसा करके तो मैं गाय और मुसलमान दोनों का दुश्मन बनूँगा इसलिए मेरी समझ से तो गाय की रक्षा का एक ही उपाय है- मैं अपने मुसलमान भाई के पास जाकर हाथ जोडूं और देश की भलायी की खातिर उसे गाय की रक्षा करने के लिए समझाऊ वह न समझे तो मुझे गाय को यह सोच कर जाने देना चाहिए कि उसे बचाना मेरे बस की बात नहीं है मुझे गाय पर बहुत ही दया आती हो तो उसे बचाने के लिए खुद अपनी जान दे देनी चाहिए पर किसी मुसलमान की जान हरगिज न लेनी चाहिए। मैं तो मानता हूँ की यही हमारे धर्म का आदेश है।” इस पुरे प्रकरण से हमें समझना चाहिए की गांधी न तो हिंदू को बचा रहे हैं न ही मुस्लिम को और न ही गाय को अपितु गाँधी मानवता को बचाने की बात कह रहे हैं। और वर्तमान राजनैतिक दलों द्वारा फैलाये जा रहे सांप्रदायिक तनाव का उपचार गाँधी को व्यवहार में लाये बिना संभव नहीं।
एक अध्ययन से स्पष्ट होता है की गांधी नैतिक मूल्यों की अपेक्षा उन मूल्यों के प्राप्त करने में प्रयुक्त साधनों अर्थात इंस्ट्रुमेंटल वैल्यू पर अधिक जोर देते हैं। हिंदुस्तान के आजाद होने के बाद से ही सांप्रदायिक तनाव रहा है और इसके कारण को लेकर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा कही गयी बात सबसे सटीक लगती है। दिनकर कहते हैं कि देश के हिंदू अपने पूर्वजों के साथ मुस्लिमों द्वारा किये गए अत्याचारों को नहीं भुला पा रहे हैं और मुस्लिम जिस देश में हजारों साल हुकूमत की हो वहां अल्पसंख्यक बनकर रहना नहीं हजम कर पा रहे हैं। और इस पूरे मसले का स्थायी समाधान केवल और केवल गांधी के पास है। हम गांधी को इस कदर भूल गए हैं की हमें नहीं याद है की गांधी ने कहा था कि भारत से केवल अंग्रेजों और उनके राज्य को हटाने से भारत को उनकी सच्ची सभ्यता का स्वराज्य नहीं मिलेगा। हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्ही की सभ्यता और उन्ही के आदर्श स्वीकार करें तो हमारा उद्धार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारत के लिखे पढ़े चंद लोग पश्चिम के मोह में फंस गए हैं। जो लोग पश्चिम के असर तले नहीं आए हैं, भारत की धर्म-परायण नैतिक सभ्यता को ही मानते हैं। उनको अगर आत्मशक्ति का उपयोग करने का तरीका सिखाया जाए, सत्याग्रह का रास्ता बताया जाए, तो वे पश्चिमी राज्य-पद्धति का और उससे होने वाले अन्याय का मुकाबला कर सकेंगे तथा शस्त्रबल के बिना भारत को स्वतंत्र करके दुनिया भी बचा सकेंगे।
भारत ने, भारत के नेताओं ने और एक ढंग से सोचा जाये तो भारत की जनता ने भी गांधी जी द्वारा मिले हुए स्वराज्य-रूपी फल को तो अपनाया, लेकिन उनकी जीवन दृष्टि को पूरी तरह अपनाया नहीं है। धर्मपरायण, नीति-प्रधान पुरानी संस्कृति की प्रतिष्ठा जिसमें नहीं है, ऐसी ही शिक्षा पद्धति भारत में आज प्रतिष्ठित है। न्यायदान पश्चिमी ढंग से ही हो रहा है। इसकी तालीम भी जैसी अंग्रेजों के समय में थी वैसी ही आज है। अध्यापक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर और राजनीतिक नेता ये पांच मिलकर भारत के सार्वजानिक जीवन को पश्चिमी ढंग से चला रहें हैं। अगर पश्चिम के विज्ञान और यांत्रिक कौशल्य (Technology)  का सहारा हम न लें और गाँधी जी के ही सांस्कृतिक आदर्श का स्वीकार करें, तो भारत जैसा महान देश सऊदी अरेबिया जैसे नगण्य देश की कोटि तक पहुंच जायेगा, यह डर भारत के आज के सभी पक्ष के नेताओं को है। आज के नेताओं को यह सीखना चाहिए की गाँधी जी ने पाश्चात्य सभ्यता को, परंपरागत भारत के समर्थक होने के बावजूद भी, अच्छी तरह पढ़ा, समझा और फिर उसका विवेचनात्मक खंडन भी किया। उनके सामने यह बात स्पष्ट थी कि भारतीय-आधुनिकता सीमित होते हुए भी प्रभावी है।

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