kashmir file

मैंने भी "द कश्मीर फाइल्स" देख ली है। पहली बार कोई फ़िल्म इतनी चर्चा के बाद देखी। मेरी मित्र सूची में
शामिल अभिनेत्री भाषा सुम्बली और और हमारे भैय्या अरुण शेखर जी के करीबी मित्र अतुल श्रीवास्तव जी भी
फ़िल्म में थे सो एक सहज आकर्षण भी था। पलायन का दुख उठा चुके कश्मीरी कविवर अग्निशेखर और दर्दपुर की
लेखिका क्षमा कौल जी की पीड़ा की बातें बरसों से उन दोनों की फेसबुक वॉल पर पढ़ता रहा था।सो फिल्म की दुख
-तकलीफ की बातें लिये नई नहीं थीं। कविवर अग्निशेखर का कवि मंगलेश डभराल से कश्मीरी विस्थापितों के बारे
में लम्बा संवाद चला था दो -तीन वर्ष पहले। तब अग्निशेखर जी ने कश्मीर से पलायन जो मार्मिक संस्मरण
अपनी वाल पर लिखे थे उसे पढ़कर रोना आता था ।इस फ़िल्म में उस दुख -तकलीफ का एक बड़ा हिस्सा नहीं आ
पाया है। फिर भी ये फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की भयानक दुर्दशा का चित्रण तो करती ही है।
पहली बात तो फ़िल्म का मोमेंटम कश्मीर से हटकर दिल्ली चला आया ,यहीं पर फ़िल्म कुछ हद तक दिग्भ्रमित
लगी लेकिन सब्जेक्ट इतना संवेदनशील था कि ये सब बातें बेमानी लगीं। चूंकि फ़िल्म ध्यान से देख रहा था कि तो
मुझे लगा कि कश्मीर की समस्या को किसी डिग्री कालेज या यूनिवर्सिटी से प्रभावित होना ऐसा ही है कि जैसे
गोलियों के घाव पर हल्दी लगाने की तजवीज की जाए।
फ़िल्म में ब्रेनवाश का जिक्र तो है मगर 1990 के किसी ब्रेनवाश का जिक्र नहीं है अल्बत्ता 2022 के ब्रेनवाश का
ज़िक्र जरूर है जो इतने बड़े मुद्दे को एक प्रोफेसर के इर्द -गिर्द रचता है।ये बात कथानक के कैनवास को जस्टीफाई
नहीं करती।
आते हैं इस समस्या पर ,लेखक होने के नाते मेरा ये हमेशा से मानना रहा है कि "साहित्य ,सिनेमा से आगे चलता
है " और इस सिनेमा का कैनवास जरूर बड़ा है लेकिन नया नहीं है । बहुत लोगों का मानना है कि कश्मीर समस्या
,कत्लोगारद ,पलायन और साजिशों को तब के मीडिया ने नहीं दिखाया।
मुझे इस बात से सहमति नहीं है कश्मीर समस्या जब शुरू हुई तब से उसे सचिन तेंदुलकर के पदार्पण जितनी ही
तवज्जो दी गयी। हिंदी मीडिया ने इस मामले में बहुत ही मजबूती से डटकर उग्रवादियों को उग्रवादी ही कहा। 10
वर्ष की उम्र से मेरी स्मृतियां हैं कि मेरे घर 90 के दशक में बलरामपुर में हिंदी और अंग्रेजी के अखबार आते थे ,
मोहल्ले में हिंदी के विभिन्न अखबार आते थे । क्रिकेट की खबरों और क्रिकेट के नायकों की तलाश में विभिन्न
अखबारों को मैं पढ़ता रहता था ,करीब -करीब सभी में कश्मीर के कत्लोगारद की सचित्र खबरें प्रकाशित होती थीं।
रेडियो पर शाम के समाचार में रोज कश्मीरी पंडितों की खबरें आती थीं बिना किसी लाग लपेट के ,वैसे ही जैसे
आजकल सोशल मीडिया पर बिना एडिटिंग के।
अंग्रेजी अखबार तो थोड़ा बहुत सम्भलकर लिखते थे लेकिन हिंदी अखबारों ने तो मोर्चा सम्भाल लिया था और शब्द
युध्द लड़ रहे थे ,तब हिंदी के अखबारों का वितरण अंग्रेजी के अखबारों से दस गुना ज्यादा था।
अलबत्ता बीबीसी रेडियो जरूर रंग बदलता था हिंदी सर्विस में राष्ट्र की तरफ से खबरें बनाकर देता था और उर्दू
सर्विस में कश्मीरी अलगाववादियों के प्रति उनका सुर नरम रहता था ।10.30 पर हिंदी का प्रोग्राम आता था औऱ
11 बजे उर्दू का। मैं दोनों सुनता था दोनों में बीबीसी का नजरिया बदला रहता था ।ये वैसे ही है जैसे कश्मीर

फाइल्स जैसे फिल्में कश्मीरी पंडितों के विक्टिम होने का पक्ष रखती हैं और हैदर जैसी फिल्में कश्मीरी
अलगाववादियों के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं।

समस्या बढ़ती गयी,देश में प्रतिरोध बढ़ता गया । मीडिया और देश और भी जरूरी खबरों में उलझे रहे ,बाबरी
मस्जिद को ढहाने की घटना हुई ,कारसेवकों पर गोली चलने की घटनाओं से और फिर 1993 के मुम्बई बम
विस्फोट में लोगों को अपने धर्म -अपने मजहब के लोगों की ज्यादा चिंता हुई और ये मुख्यधारा की मीडिया से ये
खबरें कम प्रसारित होने लगीं। लेकिन मीडिया में कश्मीर छाया रहा। दूरदर्शन पर पाकिस्तान डायरी या पाकिस्तान
नामा नाम का एक आधे घण्टे का साप्ताहिक प्रोग्राम आता था,जिसमें सिर्फ कश्मीर की खबरें होती थीं और अंत में
बुल्लेशाह नाम का एक करेक्टर कविता गा कर पाक प्रायोजित आतंकवाद पर प्रहार होता था।वो आतंकवाद जो
कश्मीर का नासूर बन चुका था।
फिर कश्मीर में चुनाव हुए । निर्वाचित सरकार बनी तो लोगों को लगा कि अब तो स्वशासन है ,आतंकवाद अब कम
हो जाएगा और कश्मीरी पंडितों की वापसी होगी। कश्मीर की सरकार ने ऐसा वादा और इरादा भी जाहिर किया ,
लेकिन आतंकवाद अब कश्मीर की दिनचर्या बन चुका था ।हुर्रियत कश्मीर का सिस्टम चला रही थी और निर्वाचित
सरकार ,सरकार चला रही थी जैसा कि इस फ़िल्म में एक डायलॉग है
"सरकार उनकी है मगर सिस्टम हमारा है "।
तो सिस्टम चलता रहा ,यूनियन आफ इंडिया का खजाना खाली होता रहा लेकिन आम कश्मीरी अभावग्रस्त और
लहुलुहान ही रहा। पड़ोसी का खाली घर कब्जा करके कोई अमीर नहीं हो जाता। स्पेशल स्टेटस में देश के
करदाताओं का पैसा पानी की तरह कश्मीर में बहाया गया ताकि दुनिया को ये लगे कि हमने कश्मीर के लोगों को
बहुत अच्छे से रखा है ।
कश्मीर में इकीसवीं शताब्दी के दूसरे पहले दशक में कोई उद्योग नहीं था ,जो कश्मीरी शाल उत्तर भारत के शहरों
में कश्मीरी युवक गली गली "कश्मीरी शाल " बताकर बेच जाते थे ,वो शाल लुधियाना में बनती थी ये बात मेरे
घरवालों को दो वर्ष बाद पता चली।
इस दौर तक आतंकवाद कश्मीर में एक स्थानीय उद्योग बन चुका था जिसे विक्टिम का भी पैसा मिलता था और
हथियार उठाने पर पैसा मिलने का आकर्षण था। इस फ़िल्म में हथियार उठाने वालों को एकमुश्त रकम और
निर्वासित कश्मीरी पंडितों को गुजारे के लिये मिलने वाली बेहद अल्प पेंशन का ज़िक्र है । यानी सारे सुख हथियार
वालों के पास रहे और निर्वासित कश्मीरियों को भरपेट चावल खाने के भी लाले पड़े थे।
पानी की तरह देश के करदाताओं का पैसा कश्मीर जाता रहा और इस जन्नत को जन्नत बनने के लिये झूठी
आजादी की मुहिम से जुड़े हर किसी को पैसा चाहिये था वो चाहे सरकार से मिले ,एनजीओ से मिले या बॉर्डर पार
से ।
"पाल ले इक रोग नादां " की तर्ज पर इस दहशत गर्दी की समस्या को बरसों पाला गया ,ये हुर्रियत ,स्थानीय
सरकार और पाकिस्तान तीनों को सूट करता था ,सबको पैसे मिल रहे थे,बंट रहे थे , मर्ज का इलाज हो सकता था

,मर्ज का इलाज हो जाता तो कश्मीरी पंडित लौट जाते अपने घरों को ,क्योंकि भारत अब एक परमाणु शक्ति
सम्पन्न देश था और चीन जैसे देशों को आंख दिखा रहा था।
फिर क्या वजह थी कि बित्ते भर के राज्य (क्योंकि आतंकवाद सिर्फ कश्मीर के 5 जिलों तक सीमित रहा था ) के
चंद नेता सर्वशक्तिमान यूनियन ऑफ इंडिया को आंखे दिखाते रहे थे ।
ये कोई जेहाद, धर्मयुध्द नहीं था ये सब पैसों को लेकर किया गया खेला था । जिसमें भारत के करदाताओं का पैसा
जाता रहा और लोग यूपी, बिहार और बंगाल को कोसते हैं कि ये धन नहीं पैदा करते बल्कि दूसरे राज्यों से इनमें
पैसा जाता है ,क्या किसी ने ये पूछा कि 5 जिलों के इस आतंकवाद पर भारत के कर दाताओं का कितना पैसा गया

कश्मीर भी भारत से सिर्फ लेता ही रहा ,कोई अर्थव्यवस्था नहीं है कश्मीर की ,कुछ भी योगदान नहीं है कश्मीर का
भारत की जीडीपी में । अगर आप मानते रहे हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो ये अंग अपनी ज़िम्मेदारी
क्यों नहीं लेता ,क्योंकि अनाज तक दूसरों से लेता है।
कितने आत्मनिर्भर हैं ,बाढ़ आने पर हमने देखा था तब कोई हुर्रियत या हिजबुल सामने नहीं आया था कश्मीरियों
की मदद के लिये।तब वही इंडियन आर्मी सबकी जान बचाने आयी थी जिस पर पत्थरबाजी होती है लेकिन वो हर
कश्मीरी के दुख -दर्द के साथ खड़ी रही है।
और अगर जन्नत ही है तो सब कुछ खाली -खाली क्यों। उमर अब्दुल्ला जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने एक बार
अफसोस जताते हुए कहा था कि-
"हमारी तमाम मस्जिदों में भी बिजली का लीगल कनेक्शन नहीं है और कटिया लगाकर बिजली ली जा रही है "
इस बात को कहते हुए उन्होंने किसी एक्शन लेने की बात नहीं कही थी अलबत्ता अपनी बेबसी ही जाहिर की थी।
कुछ महीनों पहले एक पत्रकार ने उमर अब्दुल्ला से पूछा कि "केंद्र ने मदद बंद कर दी तो कश्मीर कैसे चलाओगे"।
उमर अब्दुल्ला ने कहा
"हाइड्रो पावर से बिजली बनाकर और बिजली बेचकर "।
वाकई उमर अब्दुल्ला इतने मासूम हैं उन्होंने टॉप विदेशी फाइनेंस कम्पनी में काम किया है , वो क्या ये नहीं
जानते कि पूरी दुनिया में हाइड्रो पावर बंद हो रहा है और भारत में इतनी ज्यादा बिजली उपलब्ध है कि सस्ती
बिजली के लिये एक अलग एक्सचेंज पर बिडिंग होती है ।

अगर ये आमदनी का खेल नहीं था कोई धर्मयुध्द था तो सारे कश्मीर के नेता विगत वर्षों में इतने धनवान कैसे हुए
,एनआइए की जांच में बिल्ला कराटे जैसे साधारण हैसियत के लोगों के कश्मीर में 4 मंजिले के दो मकान कैसे बन
गए जबकि 16 वर्ष वो जेल में रहा। जहां कश्मीरी पंडितों के लिए ये तीस वर्ष यातना के रहे वहीं कश्मीरी
अलगाववादी नेताओं के लिये
“सब चंगा सी “ वाली सिचुएशन रही।

तनिक पता कर लें "केशर" की कीमतें पिछले कुछ वर्षों से ऐतिहासिक रूप से नीचे हैं। खबरें आ रही हैं कि जो पैसा
गुंडई के बल पर आतंकवादी ले जाते थे वो अब प्रशासन की सख्ती से नहीं जा पाता। तो केशर की कीमतें खासी
नीचे आ गयी हैं।
जिन्हें लगता है कि कश्मीर के अलगाववादी नेता कोई बेहतरीन नजीर पेश कर रहे हैं जरा उनके बच्चों पर नजर
डालें। ये लोग कश्मीर के हर घर से एक युवक अपनी “नेरेटिव आजादी “ के लिये मांगते थे और उन्हें कुर्बानी का
सबक पढ़ाते थे वो अपने बच्चों को “सेफ हाउस” विदेशों में पढ़ाते हैं । दूसरों को दाढ़ी, लिबास,हुलिया कश्मीर में
बताते हैं और इनके बच्चे फैशनेबल जीवन जीते हैं और कोई कायदा नहीं मानते। इनके ब्रेन वाश के हिसाब से आम
कश्मीरी के लिये कत्ल,धरना,बंद, पत्थरबाजी धर्मयुध्द और आजादी की लड़ाई है ।आम कश्मीरी के लिये जंग फर्ज है
इनके लिये सेफ हाउस मौके की जरूरत।
पता नहीं कश्मीर में ऐसा क्या है कि भूखे -नंगे ,अनाज को तरस रहे लोग भी कश्मीर के नाम पर न सिर्फ चंदा
देते हैं बल्कि बंदूक उठाकर लड़ने भी आते हैं गैर मुल्क से। कश्मीर की आज़ादी की अफीम का असर देखना हो तो
जरा पाक के कब्जे वाला कश्मीर देखिये।वहाँ के रहन -सहन को देखिये, वहाँ की तालीम को देखिये और वहां के
मानवाधिकार को देखिये, अठारहवीं शताब्दी में जी रहें वो लोग ।क्योंकि पाकिस्तान के कर दाता अपना पैसा आजादी
के नरेटिव पर नहीं उड़ाने देते,अलबत्ता पाकिस्तान ने तो उस कश्मीर को चूस के उसके हाल पर छोड़ दिया है ।
कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ ,उसके सारे पहलू अभी सामने आने बाकी हैं । उनका आधा दर्द भी समस्त
सिनेमा,साहित्य या मीडिया में नहीं आ सका है,लेकिन देश उनके पक्ष में खड़ा है उनके दुख में रो रहा है। कुछ लोग
इस फ़िल्म को एक खास एजेंडा बता रहे हैं।किसी के घाव को कोई एजेंडा कैसे कह सकता है ? क्या किसी के
सताने का चित्रण एजेंडा हो सकता है ,फिर तो विभाजन पर बनी सारी फिल्में सारा लिटरेचर एजेंडा ही माना जाना
चाहिये। इस फ़िल्म में सबसे यातना का दृश्य तब आता है जब अस्पताल में भर्ती लोगों का चल रहा इलाज फारुख
मलिक “काफिरों का इजाल नहीं होगा” कहकर रुकवा देता है। चिकित्सा के बाद अगला हमला भूख पर होता है जब
पीडीएस सिस्टम में धर्म के नाम पर अनाज प्राप्त न हो पाने की रोती -बिलखती बेबसी सामने आती है। कश्मीरी
पंडितों के इलाज से महरूम किये जाने और भूख से बेबसी वाले दृश्य किसी की भी आंख नम करने को पर्याप्त हैं।
5 अगस्त 2019 को भारत के इतिहास में जो हुआ उसके नतीजे धीरे -धीरे सामने आएंगे। परिसीमन का काम चल
रहा है अब 5 जिलों के चक्कर जम्मू और लद्दाख के हक -हकूक नहीं दबाए जा सकेंगे। क्योंकि आम भारतीय के
लिये देश का हर टुकड़ा जन्नत है। मोहल्ले टाइप के हुर्रियत के नेता यूनियन ऑफ इंडिया को ब्लैकमेल नहीं कर
सकेंगे। वैसे भी हुर्रियत ने हमेशा प्राइवेट लिमिटेड की तरह काम किया और सिर्फ वसूली की। हैरानी की बात है कि
फ़िल्म “द कश्मीर फाइल्स” ने कश्मीर के कैंसर हुर्रियत का ज़िक्र तक नहीं किया बल्कि फारुख मलिक बिट्टा जैसे
प्यादे तक ही ये आतंक का खेल दिखाया।
फ़िल्म अच्छी है, मिथुन चक्रवती और पल्लवी जोशी ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम किया है । भाषा सुम्बली
,अतुल श्रीवास्तव और पुनीत इस्सर का काम भी बढ़िया है। दर्शन कुमार का काम महत्वपूर्ण है मगर नाटकीयता का
शिकार परम अज्ञानी से परम ज्ञानी होने का सफर वो एक रात में ही पूरा कर लेते हैं और अंत का लेक्चर कुछ
ज्यादा ही लम्बा हो गया। फ़िल्म के अंत में एक बात बहुत खटकी कि कृष्णा के दिये गए लेक्चर का किसी पर

प्रभाव न पड़ना जैसे कि राधिका मेनन सिर्फ हतप्रभ होकर चली जाती हैं और स्टुडेंट्स कुछ खास रिस्पांस नहीं देते।
इसके बाद कोई तो इंपैक्ट सीन होना चाहिये था।
अभिनय की बात करें तो अनुपम खेर ने खुद को रिपीट किया है वो ऐसे रोल बहुत बार कर चुके हैं और इस बार
उतने असरदार भी नहीं रहे हैं। फारुख बिट्टा के रूप में चिन्मय दांडेकर बेहद प्रभावी दिखे हैं, उनका खामोश
अभिनय बहुत अच्छे से बोलता है।
फ़िल्म कहीं से भी मुस्लिम विरोधी नहीं है ,अंत में ये वाक्य कहा जरूर गया है लेकिन ऐसे दृश्य दिखाए भी नहीं
गए हैं।क्योंकि ये एक सर्वविदित तथ्य है कि तीन दशक तक चली इस झूठी आजादी की लड़ाई में तमाम मॉडरेट
मुस्लिम भी उग्रवादियों द्वारा मारे गए हैं।
सिनेमा बहुत ही पावरफुल माध्यम होता है और ढके -दबे सच को सेलुलाइड पर अपने हिसाब से पर्दे पर ढालता है ,
यकीनन कश्मीर का सच उससे भी ज्यादा दुर्दांत और भयानक था जितना फ़िल्म में दिखाया गया है।
और अगर यहूदियों पर नाजियों के जुल्म पर फ़िल्म बनती है तो कश्मीरी पंडितों की जलावतनी पर बनी फिल्म
एजेंडा कैसे हो सकती है ,कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर आंखे मूंदने की कोई जरूरत नहीं है।
ये मामला कश्मीरियों का है । ये कश्मीरी पंडितों और कश्मीरियों के बीच के शिकवे -गिले हैं और कोई कश्मीरी देश
से अब अलग नहीं है।
फ़िल्म तो कुछ दिन में चल कर उतर जाएगी लेकिन जो कश्मीरी अपने कश्मीरी पंडित भाइयों की हिफाजत को खड़े
नहीं हुए ये उनके “सारी” कहने और उनकी घर वापसी को “मूव आन” कहने का समय है।
बुल्ले शाह की ऐसी ही एक ताकीद है जो चुप रहे या जाने -अंजाने कश्मीरी पंडितों की जलावतनी में शामिल रहे
कश्मीरियों से कहती है –
“पढ़ -पढ़ कताबां इल्म दियाँ
तू नाम रख लया काजी
हत्थ विच फड़ के तलवार
तू नाम रख लया गाजी
मक्के मदीने घुम आया
ते नाम रख लया हाजी
ओ बुल्ल्या हासल की कीता
जे तू यार न कीता राजी
“बुल्लेशाह “।
समाप्त

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