सोच बेटी सोच…!
क्यूँ है इस दुनिया में आयी तू
क्यूँ लड़नी पड़ेगी इतनी लड़ायी?
सोच बेटी सोच …
इस बात में है बहुत गहरायी।

क्यूँ इनके अस्तित्व, इनके वजूद पर,
हर समय मुसीबतें आयी?
क्यूँ इनके आगे बढ़ने पर,
हर समय दिक्कतें आयी?
क्यूँ हर क़दम पर ठोकरें खायी तू,

हर क़दम पर तू गिरी?
अपना आत्मविश्वास भी गँवायी।
इसमें ठोकरों का नहीं दोष,
क्यूँ संभलकर न चल पायी तू?
सोच बेटी सोच…
क्यूँ है इस दुनिया में आयी तू?

आजतक सोचने के अतिरिक्त,
दशकों से और भला क्या कर पायी तू?
और सोच ले जी भर-भर के,
क्यूंकि सोचने के अतिरिक्त और
भला क्या कर भी पाएगी तू…!

करना है तो कर ले पूरे,
अरमान मन में जो रह गए अधूरे
ये न सोच…!  कि
लोग क्या कहेंगे तुझे।

वरना यही सोचते-सोचते,
हाथ पे हाथ धरी रह जाएगी तू
और कुछ आगे न कर पाएगी तू!

निकल जाएगी ये दुनिया बहुत आगे,
बस… हाथ मलते रह जाएगी तू
और कुछ न कर पाएगी तू!

सोच बेटी सोच …………

 

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