मैं नारी हूँ

और 

मैं शापित हूँ

नरों की कुंठा 

झेलने के लिए

और

इस बेढंगे समाज में

रोज़

नई प्रताड़नाओं से

मिलने के लिए

मैं कैसे तोड़ पाऊँगी

इन सभी वर्जनाओं को

जो इतिहास ने खड़े कर रखे हैं मेरे समक्ष

जिनको आज़ादी है 

रोज़ नए संशोधन की

जिससे औरतों का दोहन 

चिर-अनंत काल तक 

यूँ ही चलता रहे

ये क्रम 

ये सिलसिला 

जो है

स्त्रियों को वस्तु बनाकर

भोग करने की

बाज़ारों,किताबों,तंत्रों,

वेद-पुराणों,संस्कृति-संस्कारों में 

दिन रात फलता-फूलता ही रहेगा

एक दिन के

किसी नारी-सशक्तिकरण कार्यक्रम से

किसी नारी,औरत,स्त्री

ललना,आर्या की संज्ञा में

रत्ती भर भी फर्क नहीं आता है

जो सदियों से गुजरता आया है

वही दंश  आज भी

सिर उठाए गुज़र जाता है

आखिर 

मेरे हिस्से क्या है

प्रलाप,प्रभंजन,आलाप,विलाप,चीख,क्रंदन,पीड़ा और रूदन

जिसका मुझे आदी बनाया है

कभी भाई,कभी पिता 

तो कभी पति ने

मैं सावित्री,सीता,

दमयंती और गार्गी की तरह

समाज के इन अतार्किक नियमों का पालन करूँगी

और थोड़ा थोड़ा रोज़ मरूँगी

क्योंकि

मैं नारी हूँ

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