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एक अक्षर का शब्द है माँ,
जिसमें समाया सारा जहाँ।
जन्मदायनी बनके सबको,
अस्तित्व में लाती वो।
तभी तो वो माँ कहलाती,
और वंश को आगे बढ़ाती।
तभी वह अपने राजधर्म को,
मां बनकर निभाती है।।

माँ की लीला है न्यारी,
जिसे न समझे दुनियाँ सारी।
9 माह तक कोख में रखती,
हर पीड़ा को वो है सहती।
सुनने को व्याकुल वो रहती,
अपने बच्चे की किलकारी।।

सर्दी गर्मी या हो बरसात,
हर मौसम में लूटती प्यार।
कभी न कम होने देती,
अपनी ममता का एहसास।
खुद भूखी रहती पर वो,
आँचल से दूध पिलाती है।
और अपने बच्चे का,
पेट भर देती है।।

बलिदानों की वो है जननी।
जब भी आये कोई विपत्ति,
बन जाती तब वो चण्डी।
कभी नहीं वो पीछे हटती,
चाहे घर हो या रण भूमि।
पर बच्चों पर कभी भी,
कोई आंच न आने देती।।

माँ तेरे रूप अनेक,
कभी सरस्वती कभी लक्ष्मी।
माँ देती शिक्षा और संस्कार,
तभी बच्चों का होता बेड़ापार।
ढाल बनकर खड़ी वो रहती,
हरहाल में बच्चों के साथ।
तभी तो बच्चों को,
मिलती जाती कामयाबी।।

सदा ही लुटाती बच्चों पर,
अपनी ममता स्नेह प्यार।
माँ तेरी लीला है अपरंपार,
जिसको समझ न सका संसार।
इसलिए तो कोई उतार,
न सका माँ का कर्ज।
तभी तो जगत जननी,
माँ ही कहलाती है।।

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