समुद्र की यात्रा पर
दर्शन और भौतिकी मिले
दोनों ही जिज्ञासु, दोनों ही अद्भुत लगे।
थोड़ी देर मौन के बाद
भौतिक मुस्कुराकर बोला—
हम दोनों का लक्ष्य तो एक ही है:
सत्य, ज्ञान, और ब्रह्माण्ड की खोज।
मगर फर्क बस इतना है—
तुम ‘क्या’ और ‘क्यों’ पूछते हो
और मैं—‘कैसे’ और ‘कितना’ जानना चाहता हूँ।
इसलिए मैं
हर युग, हर दौर में
मानव जीवन में उपयोगी और प्रासंगिक बना रहता हूँ।
और तुम?
तुम्हारा महत्व और प्रासंगिकता
देश, काल, परिस्थिति पर निर्भर करते हैं—
कभी घटते, कभी बढ़ते रहते हैं।
आज तुम्हारा विस्तार
कुछ सीमित हो चला है
जो चिन्ता का विषय है…
फिर भी
भौतिकी ने गहरी सांस ली—
मेरे कदमों को दिशा देने के लिए
तुम्हारी जरूरत हमेशा रहेगी।