बचपन की वो गलियाँ, वो मिट्टी की खुशबू,
नंगे पाँव दौड़ना, बारिश में भीगना खूब।
कंचे, लट्टू, पतंगों की उड़ान,
हर खेल में छुपा था कोई अनजान गुमान।
न किताबों का बोझ, न जिम्मेदारियाँ भारी,
हर दिन था उत्सव, हर शाम थी प्यारी।
रूठना मनाना, फिर गले लग जाना,
बिना मतलब के भी घंटों बतियाना।
माँ की गोद में दुनिया बस जाती थी,
पिता की उँगली थाम, हिम्मत आ जाती थी।
एक चॉकलेट पर हो जाती थी दीवानगी,
छोटे-छोटे ख्वाबों में बसती थी ज़िंदगी।
ना मोबाइल, ना नेट का जाल,
फिर भी दिलों में था सच्चा हालचाल।
अब तो बचपन जैसे कहीं खो गया है,
वो मासूम हँसी, बस यादों में रह गया है।
काश! लौट आए वो पल सुहाने,
जहाँ न था दिखावा, न झूठे बहाने।
बस दिल से जिया करते थे हम,
बचपन था जैसे खुद में एक मौसम।