जब आप यह नाम सुनते है तो दिमाग में एक चित्र उभरता है कि एक व्यक्ति के हाथ में एक धारदार हथियार है जो जानवरों को काटने का काम भी आता है लेकिन यहाँ जानवरों को मारने वाले कसाई को कतई नही दिखाया गया है। राजस्थानी सिनेमा के निर्देशक गजेन्द्र श्रोत्रिय और कहानी के लेखक चरण सिंह पथिक ने भी ऐसा कुछ नही लिखा है कहानी में। तो फिर किस के ऊपर है कसाई फ़िल्म ? और कौन ये कसाई? क्या यह कोई खूंखार आदमखोर इन्सान या आदतन हत्या का अपराधी? शायद आप यही सोच रहे होंगे? पर फ़िल्म में कसाई कोई और ही है!
तो चलिये अब आपको फ़िल्म देखने के लिये थोड़ा सा उकसा देता हूँ! कसाई हाल ही में शेमारू मी डिजिटल प्लेटफार्म पे रिलीज़ हुई एक राजस्थानी पृष्ठभूमि की फिल्म है जिसके निर्देशक है गजेन्द्र श्रोत्रिय और कहानीकार चरण सिंह पथिक। संवाद भी दोनों ने संयुक्त रूप से लिखे हैं और कहानी को पर्द पे उभारा है अश्विन आमेरी ने।
यह कहानी ग्रामीण परिवेश की है जिसमें कई कसाईयों (ये आपको फ़िल्म देखने पर पता चलेगा कि कसाई की संज्ञा किसको दी गई है) ने मिलकर दो प्रेमी युगलों की बलि चढ़ा देते है जिसमें से एक की हत्या कर दी जाती है और दूसरे की जिन्दा बलि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिये चढ़ा दी जाती है। हालांकि फ़िल्म में जिन कसाइयों को सजा मिलनी चाहिए थी? उनको मिलती है या नही? और प्रेमी की हत्या का कारण क्या है? इन दोनों संशयों को केवल फिल्म देख के ही दूर किया जा सकता है या पता लगाया सकता है।
कौन कसाई है कौन नही और किस जुबां बात करते है ये ?
तो बात शुरू होती है और फ़िल्म भी यही से शुरू होती है सरसों के खेत और खेत के किनारे खड़े हुए पीपल के पेड़। यह आपको पूर्वी राजस्थान में बहुतायत में देखने को मिल जायेंगे। राजस्थान क्या दुनियाभर के गाँव ऐसे ही बसे हुए हैं किन्तु इस गाँव में कसाई ज्यादा बसते हैं ऐसा मैं नही कह रहा हूँ ऐसा इस फ़िल्म के पूर्वार्ध में आप यानी दर्शकों को लगेगा, पर चिन्ता ना करें आपको इस बात आभास भी नही होने दिया जायेगा। क्योंकि कहानी को इसी तरह से आगे बढ़ाया है फिल्म के निर्देशक गजेन्द्र श्रोत्रिय ने। सबसे पहला चेहरा पर्दे पर आपको दिखता है एक्टर मयूर मोरे का। ये इस कहानी के मूल शुत्रधार नायक है नाम है सूरज, जिसे अपने ही गाँव की लड़की से प्रेम में उगने की कोशिश करने के कारण कुछ कसाइयों द्वारा डूबा दिया जाता है और फिर उनका साथ देने वाली लकड़ी के द्वारा कहानी को आगे बढ़ाने के लिये ऋचा मीणा के अभिनय में मिश्री का परिचय और उसकी व्यथा को चित्रित किया जाता है। हालांकि पूरी कहानी इन दोनों युगलों के सहारे ही आगे बढ़ती है किन्तु कहानी डूबते हुए सूरज को भूल नही पाती है तो वह है उसकी माँ गुलाबी, जिसको मीता वसिष्ठ ने बख़ूबी निभाने की सफल कोशिश की है और उनके साथ है रवि झाँकल, जिन्होंने लखन (सूरज के पिता) के अभिनय को बड़ी मजबूती से पर्दे पर उकेरा है।
अब जब फ़िल्म गाँव की है तो गाँव बिना सरपंच के तो पूरा हो ही नही सकता है तो पूर्णाराम सरपंच का अभिनय किया है वीके शर्मा ने। इनका अभियान रंगमंच के एक मंजे हुए कलाकार जैसा लगता है। ये कुछ मुख्य पात्र है फ़िल्म में है हालांकि फ़िल्म ओर भी सहायक पात्रों से भरपूर है। अब उनके बारे तो में आपको फ़िल्म देख के पता करना चाहिए। पर यह फ़िल्म राजनीतिक महत्वाकांक्षी और हमेशा सरपंच बनने की लालसा में डूबे हुए वर्तमान सरपंच और उसके चुनाव जीतने की जुगत में पोते एवं बेटे की मौत पर पर्दा डालने हर संभव किये गए प्रयासों को बख़ूबी दिखाने ने सफल रही है। फ़िल्म में कई दृश्यों में वो पीपल का पेड़ ही कसाई लगता है और उस कसाई को भगाने के लिये एक स्याणा-भोपे को का सहारा लिया जाना और उस अंधविश्वास में एक और बलि चढ़ा दी जाती है। यह फ़िल्म का क्लाइमेक्स भी है।
संभवतः इस तरह के कसाई हर गाँव परिवार में पनपते है और रिश्ते नातों को अपनी राजनीतिक इच्छाओं के सामने बड़ी चतुराई से रोंदते रहते है। सूरज के दादा और उसके पिता उसको रोंदते है तो मिश्री के दादा और बाप उसको। गांवों में कितने सूरज एवं मिश्री इस तरह ही बलि देते आए हैं और कितने देते रहेंगे यह तो सरपंच के चुनाव में देखा जाता ही रहेगा।
कुछ रोचक किस्से या हिस्से
इस फ़िल्म की एक ख़ास बात यह है कि अगर आप गजेन्द्र श्रोत्रिय, चरण सिंह पथिक, अमित बीमरोट (जो फ़िल्म के साथी निर्देशक भी है) आदि को जानते है तो उनके अभिनय की कुछ कुछ झलक देखने को मिलेगी।
पूर्वी राजस्थान की भयंकर सर्दी के कंठ काळ जाड़े में फ़िल्म का निर्माण करना बहुत कठिन कार्य है फ़िल्म का बजट कम होने के कारण फ़िल्म को जल्दी समाप्त करने का दबाव भी सभी अदाकारों एवं निर्माणकृता पर देखा जा सकता है फिर भी एक राजस्थानी ग्रामीण पृष्ठभूमि की फ़िल्म को बनाना बहुत ही काबिल-ए-तारीफ़ है। एक और रोचक बात इस फ़िल्म में यह है कि चरण सिंह पथिक ने जिस घर में रहते हुए ये कहानी लिखी थी उसी घर में जाकर गजेन्द्र श्रोत्रिय ने फ़िल्म को बनाया। अमित बीमरोट जो की हिन्दी फ़िल्म ने एक नए कलाकार के रूप में उभर रहे है उन्होंने इस फ़िल्म निर्देशन के साथ कुछ कुछ सीन्स में अभिनय भी किया है। फ़िल्म में ज्यादातर संवाद पूर्वी राजस्थानी की बोली में ही है किन्तु हिन्दी भाषा के साथ ये संवाद सहज ही समावेश हो जाते है। फ़िल्म के सभी महत्वपूर्ण हिस्से रात्री में ही फिल्माई गये हैं शायद यह कहानी की आवश्यकता रही होगी। सरसों के खेतों में लहलाती फ़सल और उस पर बिछे हुए पीले फूलों के दृश्य मनमोहक लगते हैं और ग्रामीण जीवन की जीवंतता को दर्शकों तक पहुचाते है।
खरी खोटी बातें
फ़िल्म निर्माण में बहुत सारी कमियाँ भी रह जाती है कोई कहानी कभी पूरी नही होती है और फ़िल्म में कुछ तकनीकी खामियाँ भी रह ही जाती है। फ़िल्म के आरम्भ में कुछ पात्रों की भूमिका एवं उनका परिचय का अंदाजा बहुत बाद में जाकर चलता है और दर्शक इस आशा में रह सकता है कि ये पात्र शायद आगे फ़िल्म के कुछ महत्वपूर्ण मोड़ के हिस्सा होंगे। कुछ पात्र कहानी में बिखरे हुए नज़र आते है परन्तु फ़िल्म के मुख्य पात्र कहानी को एक साथ बांधने में लगे हुए दिखाई पड़ते हैं। बीच बीच में पात्र अपने संवादों में हिन्दी का प्रयोग करने से भाषा की निरंतरता में रुकावट का आभास कराती है। कुछ जगह निर्देशन कमजोर दिखायी पड़ता है। दृश्यों में भव्यता का अभाव दिखायी देता है हालांकि फ़िल्म की लागत से अनुमान लगाया जा सकता है कि संसाधनों की कमियाँ फ़िल्म निर्माण में उजागर हुई है। कैमरा संचालन में सुधार किया जा सकता था इसकी वजह से कई जगह फ़िल्म संपादन के समय सम्पादक को शॉट चुनने में दिक्कत का सामना करना पड़ा होगा। कई जगह पर शॉटस गतिमान नही दिखायी पड़ते है और कैमरा में स्थरीकरण की वजह से फ़िल्म में विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का अभाव दिख जाता है। पार्श्व संगीत बहुत जगह पर समय से पहले ही विराम ले लेता है। एक-दो शॉट्स में संवाद मिश्रण की तकनिकी कमियाँ भी पायी गई हैं। हालाकि इन सब तकनीकी बारीकियों को नज़र अन्दाज भी कर दिया जाए तो भी कहानी के निर्देशन में बहुत जगह ढिलाई नज़र आ जायेगी।
कुछ कमियाँ होने के बावजूद भी इस फ़िल्म को आम फ़िल्मों की श्रेणी में नही रखा जा सकता है क्योंकि इस तरह की कहानी को फ़िल्म का रूप देना एक प्रशंसनीय कार्यों में गिना जाना चाहिए। जैसा कि ज्ञात है कसाई ने कई फ़िल्म समारोह में पुरुस्कार प्राप्त किये हैं तो वह केवल कहानी के दम पर सराहना मिली है। इसलिए कसाई फ़िल्म को आम फ़िल्म तो कतई नही कहा जा सकता है। कई दर्शकों की आशाओं पर हो सकता है ये फ़िल्म खरी नही उतरे किन्तु फ़िल्म को बनाने और लोक कहानी को लोगों तक पहुंचाना भी बहुत हिम्मत का काम माना जाना चाहिए।