11aug

द्वितीय विश्वयुद्ध में हमारे समर्थन के बदले अंग्रेजों ने आज़ादी देने का वादा किया था । लेकिन ऐसा हुआ नहीं । गोरों ने वादाखिलाफ़ी की । हम छले गए । हमें आज़ादी नहीं, धोखा मिला ।
आक्रोश ने आंदोलन का रूप ले लिया । अब दौर आरंभ हुआ ‘ भारत छोड़ो ‘ आंदोलन का । सन् 1942 में 8 अगस्त को क्रांति शुरू हुई थी । अगस्त क्रांति की चिंगारी पूरे देश में फैली । आंदोलन की आग बिहार में भी लगी । ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आवाजें बुलंद हो रही थीं । पटना के अधिकतर वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था । युवाओं की जिम्मेदारियाँ बढ़ गईं थीं अब । देशभक्त बेखौफ़, निधड़क , बुलंद इरादों के साथ आंदोलन के मैदान में उतरे थे । मकसद था आत्याचार
के अध्याय का अंत । क्योंकि बर्दाश्त अपनी हद लांघ गई थी ।
11 अगस्त की सुबह एक इरादे के साथ आई।
आज स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में एक गर्व का पन्ना जुड़ना था।
बर्बरता के लिलार पर शर्मिंदगी और कलंक का टिका लगना था।
क्रांतिकारी नौजवान पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराने के उदेश्य से
निकले । ये सभी क्रांतिकारी स्कूल-काॅलेज के छात्र थे । नौवीं, दसवीं और ग्यारहवी के छात्र । उम्र बेशक़ कम थी लेकिन हिम्मत और साहस बहुत ज़्यादा था।
जुनूनियत के हद से आगे का जुनून और यकीं से ऊँचा जज़्बा था । अभियान का नेतृत्व देवीपद चौधरी कर रहे थे । देवीपद बाबू अपने साथियों के साथ सचिवालय की ओर बढ़े । पुलिस ने रोकना चाहा । लाठ्ठीयाँ बरसाई । वीर लड़ाके रूके नहीं, बढ़ते रहे । रूकने का कोई सवाल ही नहीं था । आर या पार मन में ठान लिया गया था ।
अंग्रेज जिला अधिकारी डब्ल्यू.जी.आर्चर ने गोली चलाने का आदेश
दे दिया । क्रांतिकारियों के कदम आगे बढ़ रहे थे । छाती सामने थी ।
और छाती में जो ताव था, वह कदमों को बढ़ते रहने की ऊर्जा दे रहा था।
सबसे पहले रायफल की एक गोली देवीपद बाबू के सीने में समाई । देवीपद चौधरी लड़खड़ाये । अब तिरंगे को पटना जिले के रामगोविंद सिंह ने थाम लिया । जमीं पर लहू की मात्रा बढ़ी । रामगोविंद बाबू का रक्त भी धरती को नसीब हुआ । लहू गिरा लेकिन तिरंगा झंडा नहीं गिरा। तिरंगा पटना के रामानंद सिंह जी के हाथ में था । लक्ष्य बस कुछ दूरी पर इंतजार कर रहा था । क्रांतिवीर आगे बढ़ रहे थे । तिरंगे के सम्मान खातिर रामानंद बाबू भी शहीद हुए । इस सम्मान को जिंदा रखने की जिम्मेदारी अब सारण के राजेंद्र सिंह के कंधों पर थी, जिसे उन्होंने अंतिम साँस तक निभाया और वीरगति पाई । साथी क्रांतिकारियों का कदम रूका नहीं, भारत का झंडा कभी झुका नहीं । अब तिरंगा हाथ में लिये औरंगाबाद के जगपति कुमार, भागलपुर के सतीश प्रसाद झा और सिवान के उमाकांत सिंह(रमन बाबू) लक्ष्य तक पहुँच चुके थे ।
जगपति कुमार और सतीश बाबू को गोली लगी । भारत माता के बेटे माई के आँचल में सो गए । राष्ट्र की पगड़ी संभालने की जिम्मेदारी उमाकांत जी ने अपने कंधों पर ले लिया । बात तिरंगे के आन-बान-शान की थी । जिम्मेदारी बड़ी थी,लेकिन पूरी हुई । उमाकांत बाबू के अंतिम साँस लेने से पहले उदेश्य पूरा हो चुका था । सचिवालय पर युनियन जैक के झंडे की जगह तिरंगा लहरा रहा था । भारत माई के सात वीर सपूत अपना बलिदान दे चुके थे । धरतीपुत्रों के खून से वीरता की इबारत लिखी जा चुकी थी ।
आत्याचार की अकड़ और ब्रिटिश हुकूमत की हेकड़ी निकल गई थी । गर्व और गुमान का दिन था वह ।
पन्द्रह-सोलह साल के मर्द तानाशाही के छाती पर तांडव करके छाती की बाती मचमचा चुके थे ।
आकाश में तिरंगा गर्वनुमा धुन के साथ फह-फह कर रहा था । अनंत अम्बर में शहीदों के साहस की गाथा गूँज रही थी ।
प्रतिरोध का यह स्वर इतना ऊँचा था कि अंग्रेज जान गए थे, बहुत जल्द बोरियाँ-बिस्तरा समेटना पड़ेगा।

मातृभूमि को लहू से सिंचनेवाले क्रांतिवीरों को नमन। कोटि- कोटि नमन । भारत माई के साहसी सपूतों के श्री चरणों में शीश नवाता हूँ । कर जोड़कर वंदगी करता हूँ । भावपूर्ण श्रद्धांजलि ।
हमसब पर अपना आशीर्वाद बनाये रखियेगा धरतीपुत्रों ! आपकी कहानी आनेवाली पीढ़ियों को करेजगर बनायेगी । अनंत काल तक ।

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