भारत जैसे बहुभाषी और बहु-सांस्कृतिक परंपरा वाले देश में सिनेमा की व्यापक पहुंच ने इसे लोगों के मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम बना दिया है और इसमें हिंदी भाषा का व्यापक योगदान है। 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से लेकर आज तक सर्वाधिक फिल्में हिंदी भाषा में ही बनाई गईं हैं। इस प्रकार हिंदी भारत ही नहीं भारत के मुख्य सिनेमा की भी भाषा है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में पच्चीस से अधिक भाषाओं में फिल्में बनती हैं जिनमें एक चौथाई से अधिक फिल्में हिंदी की होती है और इनके दर्शक संपूर्ण विश्व में फैले हुए है और यही दर्शक वर्ग हिंदी की सार्वभौमिक पहुंच को मजबूती प्रदान करता है। जिससे हिंदी की पहुंच अखिल भारतीय होने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भी होती है।
अक्सर जब हम हिंदी सिनेमा में हिंदी के योगदान की बात करते है तो इसे लिखित साहित्य से जोड़कर देखते है। जबकि साहित्य चाहे लिखित हो या अलिखित वह हमेशा से समाज को प्रभावित करता रहा है। इसी वजह से बहुत-सारे निरक्षर एवं गैर-भाषाई वर्ग तक भी साहित्य की पहुँच हो जाती है। साहित्य–संरचना का मूलाधर भाषा है। परंतु वहीं साहित्य जब फिल्मी पर्दें पर आता है तो दृश्य उसके केंद्र में होता है। देखा जाए तो हिंदी के प्रसार में हिंदी सिनेमा की दृश्यता का योगदान है।
अब प्रश्न उठता है कि हिंदी सिनेमा की अखिल भारतीय पहुंच बनाने में हिंदी के साहित्यिक स्वरूप के अलावा इसके कौन-से स्वरूप का ज्यादा योगदान है।
1. राष्ट्रभाषा 2. जनभाषा 3. संपर्क भाषा 4. राजभाषा
तो, सहज जवाब आता है इसका जनभाषा वाला रूप अथवा सभी रूपों के सम्मिश्रण वाला रूप। कारण कि हिंदी सिनेमा की बात आते ही हम सभी के समक्ष वह सिनेमा आता है जिसमें पात्रों की बातचीत भले ही हिंदी में होती है, परंतु यह जरूरी नहीं है कि कहानी का संबंध केवल हिंदी भाषी क्षेत्र से हो और यह भी जरूरी नहीं कि उस फिल्म का निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, अभिनेता-अभिनेत्री, संगीतकार आदि भी हिंदी भाषी हों। लेकिन उसका मूल रस समरस समाज का होता है। यहां समरस समाज से हमारा मतलब अगर भाषायी दृष्टि से देखें तो उस सर्वग्राह्य हिंदी से है जो बहुसंख्यक प्रदेशों, जातियों को स्वीकार्य हो। यही कारण है कि हिंदी सिनेमा ने भी उसी हिंदी को अपनाया।
हालांकि, कई बार विद्धतजन इस तथ्य को गलत समझते है। उनके अनुसार साहित्यिक हिंदी को हिंदी सिनेमा में समुचित स्थान नहीं मिल पाया है। जिसे पूरी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है। फिर भी इस तथ्य से इंकार नही किया जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव लाए है और इसमें हिंदी के सभी रूपों का योगदान है। इन्हीं तथ्यों की वजह से हिंदी भारत के मुख्यधारा सिनेमा की स्वीकार्य भाषा बन चुकी है। जिसमें लिखित व अलिखित कहानियों, कथाओं, लघु कथाओं, साहित्यिक रचनाओं सभी का योगदान है। फिल्मकारों ने सदैव एवं भारत की विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक परंपराओं को अपनी फिल्मों में समाहित करने का प्रयास किया और हिंदी को उच्च स्थान दिया।
हालांकि पिछले दशकों में भारतीय सिनेमा ने अपनी जातीय और लोक परंपरा को काफी हद तक भुला दिया है। जिसका असर भाषायी चेतना पर भी पड़ा है। फिल्मों से बहुसंख्यक आबादी विलुप्त होती जा रही है। इसका स्थान जिस मध्यवर्ग ने लिया है, उस वर्ग के लिए न साझा सांस्कृतिक परंपरा की कोई प्रासंगिकता है, न हिंदुस्तानी जबान की और न ही लोक परंपराओं की। जिसका असर बहुसंख्यक समाज की भाषा पर भी पड़ा है। साहित्य और अन्य कला माध्यमों के सामने भी ये चुनौतियां मौजूद हैं। परंतु, इन चुनौतियों के बीच हिंदी सिनेमा के साथ एक सुखद पक्ष यह भी है कि इनसे संघर्ष करने वाली प्रवृत्तियां आज भी सक्रिय हैं।
बाजारवाद, तकनीकी विकास, उदारवाद का व्यापक एवं स्पष्ट प्रभाव हिंदी सिनेमा पर देखा जा सकता है। इसी का असर है कि जो हिंदी कभी भारतीय सिनेमा की प्राण तत्व मानी जाती थी उसका स्थान अब हिंग्लिश ने ले लिया है। शायद यह उस बदलते दौर का असर है जिसने 5000 साल से भी ज्यादा पुरातन सभ्यता जो कभी न बदलने का दंभ करती थी उसे इस बाजारवाद ने एक झटके में बदल दिया है। जिसका असर सिनेमा और हिंदी भाषा पर भी पड़ा है।
भाषा से किसी व्यक्ति और समाज का रिश्ता, उसके अस्तित्व से गुंथा हुआ है। ऐसे में आवश्यकता है हिंदी सिनेमा को शिखर पर ले जाने वाले साहित्य (लिखित-अलिखित) के दोनों रुपों को पुष्पवित-पल्लवित करने की। आज हिंदी फिल्में हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर विश्वस्तर पर हिंदी की पताका फहरा रही है। ऐसे में जरुरत है इसकी पुर्नव्याख्या की। तभी, हिंदी सिनेमा अपने मजबूत सकारात्मक पक्षों के बल पर पुन: अपनी खोयी हुई विरासत को पा सकेगी तथा अपनी जड़ों को सिंचिंत कर पाएगी। इसके लिए कलमकारों को भी अपनी कलम को उस ओर मोड़ने की जरुरत है जहां भारतीय समाज उठता-जागता है। कलमकारों को पुन: अपनी कलम उस ग्रामीण समाज की ओर मोड़ना होगा जहां आज भी बहुसंख्यक समाज उठता-जागता है। तभी हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरसंबंधों से भारतीय सिनेमा का यह विशाल वृक्ष बरगद का रूप ले पाएगा और हिंदी अपने एक और रूप में उन्नति पथ पर अग्रसर होगी।