सामाजिक समरसता की स्थापना के प्रयास में काव्य संग्रह “समवाद के उजाले में”
सुरेश चन्द्र प्रमुख दलित साहित्यकार के नाम से जाने जाते हैं, जो वर्तमान में दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं। उनका लेखन सामाजिक और समकालीन मुद्दों से गहराई से जुड़ा हुआ है, जो दलित विमर्श को ही नहीं बल्कि, हिन्दी के पाठकों को एक नई दिशा और चिंतन की ओर ले जाता है।
उनकी प्रमुख कृतियों में “दलित-साहित्य और अन्य शब्द साधनाएँ” और “मन्दिर से अस्पताल” रचनाएँ शामिल है, जो उनके साहित्यिक योगदान को दर्शाती हैं। सुरेश चन्द्र का लेखन दलित साहित्य को समृद्ध करने के साथ-साथ सामाजिक बदलाव की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। उनकी रचनाएँ समाज के विभिन्न पहलुओं पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, जो पाठकों को सोचने और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करती हैं। सुरेश चन्द्र की कृति ‘समवाद के उजाले में’ एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रचना है, जिसे अमन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस संग्रह में 25 कविताएँ संकलित हैं । यह कृति उनके समृद्ध अनुभवों और विद्वत्ता का प्रतीक है, जो साहित्यिक जगत में एक उल्लेखनीय योगदान है।
इस काव्य संग्रह के माध्यम से, लेखक ने संवाद की महत्ता और समाज में उसकी भूमिका पर प्रकाश डाला है, जिससे पाठकों को नए दृष्टिकोण और विचारों से अवगत होने का अवसर मिलता है। सुरेश चन्द्र जीवन के बहुमुल्यों पक्ष्यों की बात करते हैं । उनके कविता में जीवन की सच्चाई से रूबरू किया जा सकता है । जीवन में स्वप्न (Dreams) और संकल्प शक्ति (Willpower) किसी भी व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा, प्रगति और सफलता के दो मुख्य स्तंभ होते हैं। बिना स्वप्न के जीवन दिशाहीन हो सकता है और बिना संकल्प शक्ति के कोई भी स्वप्न साकार नहीं हो सकता। दोनों का संगम ही व्यक्ति को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में मदद करता है। स्वप्न हमें यह समझने में मदद करते हैं कि हम अपने जीवन से क्या चाहते हैं। वे हमें लक्ष्य निर्धारित करने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। संकल्प शक्ति व्यक्ति के आत्म-विकास और सफलता का एक विशेष आधार होती है। यह वह मानसिक शक्ति है जो हमें कठिन परिस्थितियों का सामना करने, लक्ष्य प्राप्त करने और अपने जीवन को सही दिशा में आगे बढ़ाने में मदद करती है। किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास और आत्म-नियंत्रण की आवश्यकता होती है। संकल्प शक्ति हमें विचलित होने से रोकती है और अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहने में मदद करती है। कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता संकल्प शक्ति बढ़ता है। जीवन में चुनौतियाँ और असफलताएँ आना स्वाभाविक है। संकल्प शक्ति हमें हार न मानने और बार-बार प्रयास करने की प्रेरणा देती है। हमारे जीवन में संकल्प शक्ति की भूमिका को लेकर शुरेश चन्द्र ‘स्वप्न का परिणाम’ शीर्षक कविता में लिखते हैं कि–
“ स्वप्न ! स्वप्न ? / अवश्य देखो
पर स्वप्न की शर्त याद रखो
क्या?
स्वप्न की पृष्ठभूमि का आदमी ही
स्वप्न के परिणाम में व्यक्त हो ।
आदमी की भूख मिटे
रहने के लिये उसे आवास मिले
वस्त्राभाव न हो
उसको अस्वस्थ होने पर
उसे चिकित्सा उपलब्ध हो ।
तुम्हारे स्वप्नों के परिणाम में
स्पष्टतः घटित हो यह सब
स्वप्नों का देखना सार्थक होगा तब ।
स्वप्न देखना और स्वप्न सार्थक करना अलग-अलग है।
दोनों अलग-अलग को एक किया जा सकता है-
संकल्प-शक्ति से, / तुम्हारे पास
संकल्प-शक्ति है ?
है तो उसे प्रयोग करो और नहीं है तो उसे
सृजित करने का उपक्रम करो, तब ही अपना और
अपने राष्ट्र का हित साथ सकोगे
स्वप्नों को सार्थक करके ।”[1]
यह कविता स्वप्न देखने और उन्हें साकार करने की दिशा को दर्शाती है। कवि कहते हैं कि स्वप्न अवश्य देखना चाहिए, लेकिन स्वप्न केवल कल्पना या भ्रम नहीं होना चाहिए। वे ऐसे हो, जिनका परिणाम समाज और मानवता के लिए उपयोगी हो। कवि स्पष्ट करते हैं कि स्वप्न का वास्तविक अर्थ तभी सिद्ध होता है जब वह आम आदमी के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाए। यदि कोई व्यक्ति स्वप्न देखता है, तो उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके स्वप्न के परिणामस्वरूप समाज की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हों – जैसे भोजन, आवास, वस्त्र और चिकित्सा सुविधा। केवल ऊँचे और भव्य सपने देखना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उन सपनों को सार्थक करने का भी प्रयास करना चाहिए।
इस काव्य संग्रह में, लेखक ने समाज में व्याप्त असमानताओं, शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए एक समतामूलक समाज की परिकल्पना की है। कविताओं के माध्यम से, कवि ने समाजवादी सिद्धांतों को सरल और प्रभावी भाषा में व्यक्त किया है, जिससे पाठकों को समाजवाद की मूलभूत अवधारणाओं को समझने में सहायता मिलती है। वे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की आवश्यकता पर बल देते हुए एक ऐसे समाज की वकालत करते हैं जहां सभी को समान अवसर और अधिकार प्राप्त हों।
‘समवाद के उजाले में’ संग्रह की कविताएँ न केवल समाज की वर्तमान स्थितियों का विश्लेषण करती हैं, बल्कि एक बेहतर भविष्य की दिशा में मार्गदर्शन भी प्रदान करती हैं। चन्द्र का यह कार्य समाजवादी विचारधारा को साहित्य के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का एक सार्थक प्रयास है। उन्होंने ‘सोच के ठिकाने’ मनु वादी विचारधारा की विसंगतियों का उजागर करते हुए लिखते हैं –
“तुमने कहा अस्पृष्य
मैंने कहा, सब समान मनुष्य
बताया तुमने अपने को ही श्रेष्ठ
कहा मैंने, न यहाँ कोई हेय
तुम करवाते रहते “सकल गुण हीना” का पूजन
और कहता मैं “गुण प्रवीण” के पूजिये चरन
तुम पढ़ाते साम्यवाद परदेशी
याद दिलाता मैं रैदास सन्त का समवाद स्वदेशी
अखण्ड भारत खोज रहे तुम विघटनकारी मनुवाद में
अखण्ड भारत राष्ट्र दिखाता मैं अम्बेडकर के संविधान में
“माँगि कै खाइबौ” लिखा तुम्हारे पूर्वजों ने
सीखा अपने पूर्वजों से श्रम कर खाना मैंने
मेरी इस कविता में तुम्हें मेरी और तुम्हारी सोच के ठिकाने मिल जायेंगे
न मिलने पर चले आना
और आसान करके बता दिये जायेंगे ।”[2]
इस कविता में कवि ने सामाजिक भेदभाव, जातिवाद और समानता के विषय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। कवि यह स्पष्ट करते हैं कि समाज में अस्पृश्यता और ऊँच-नीच का भेदभाव अन्यायपूर्ण है। उन्होंने जातिगत श्रेष्ठता के दावे को अस्वीकार करते हुए यह कहते हैं, कि सभी मनुष्य समान हैं और किसी को भी हीन नहीं समझा जाना चाहिए।
कवि पारंपरिक विचारधारा की आलोचना करते हुए बताते हैं, कि समाज के कुछ वर्ग जातिगत भेदभाव को बनाए रखने के लिए “सकल गुण हीना” (सभी गुणों से रहित) व्यक्ति की पूजा करते हैं, जबकि वे स्वयं यह मानते हैं कि व्यक्ति का सम्मान उसके गुण और प्रतिभा के आधार पर किया जाना चाहिए, न कि उसकी जाति के आधार पर।
कवि इस काव्य संग्रह में इस और भी इंगित करते हैं कि कुछ लोग बाहरी विचारधाराओं (जैसे साम्यवाद) को अपनाने की वकालत करते हैं, जबकि भारत में ही संत रैदास जैसे महान व्यक्तित्वों ने समानता और भाईचारे का संदेश दिया है। वे बताते हैं कि जातिवाद और मनुवादी विचारधारा भारत को विघटन की ओर ले जा रही है, जबकि डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा रचित संविधान भारत की वास्तविक अखंडता और एकता का प्रतीक है । ‘भीम ने किया’ शीर्षक में वे लिखते हैं कि –
“सिर उठा चलने का अवसर / हमको भीम ने दिया ।
जनहित में न कर सका कोई, / वह काम मेरे भीम ने किया ।
दे अधिकार समानता का. / जन किये परस्पर माननीय ।
स्वदेश का गौरव बढ़ाया, / कर सभ्यता को मनवीय ।
ऊँच-नीच का भेद अहितकर, / कलम-शक्ति से मिटा दिया ।
जनहित में न कर सका कोई, / वह कम मेरे भीम ने किया ।”[3]
उपर्युक्त पंक्ति से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों और शोषितों को सिर उठाकर चलने का अधिकार दिलाया है। भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत और ऊँच-नीच के भेदभाव को मिटाने का जो साहसिक कार्य उन्होंने किया, वह कोई और नहीं कर सका। अंबेडकर ने समानता का अधिकार देकर समाज में सभी लोगों को मान-सम्मान के योग्य बनाया। उन्होंने देश की सभ्यता को वास्तविक मानवता से जोड़ा और सामाजिक न्याय की स्थापना की।
‘आत्मनिर्भर भारत’ का लक्ष्य देश को आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक रूप से स्वावलंबी बनाना है, लेकिन जब इस संकल्पना को वास्तविकता से परखा जाता है, तो कई खोखलेपन उजागर होते हैं। आत्मनिर्भरता का अर्थ है कि नागरिकों को रोजगार मिले, लेकिन भारत में बेरोजगारी दर लगातार बढ़ रही है। सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरियाँ कम हो रही हैं, जिससे लोग आत्मनिर्भर बनने के बजाय अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। सुरेश चन्द्र की पैनी नजर से सरकार की यह खोखलेपन छुप नहीं पाता । ‘मायने आत्म निर्भर होने के’ कविता में कवि लिखता है-
“दुःख ही दुःख सपने खण्डित होने के, असह्य स्वर जनगण के रोने के
सड़क पर प्रसव करती माँ, पूछे मायने आत्मनिर्भर होने के
आवृत विपन्नता देख लजाये सम्पन्नता, भोगवृत्ति के साथ बढ़ चली अहंमन्यता
शिक्षा से वंचित बच्चे भीख माँगते, कौन काम के ऊँचे कंगूरे सोने के
धर्म राजनीति की भेंट चढ़ गये, जातियों के गर्त में लोकतंत्र के खम्भ धँस गये
हो रहे निरन्तर खतरे प्रबल, मानव मूल्यों के असमय खोने के
अपने राग और अपनी तान, हो रहे वापस पुरस्कार और सम्मान
संविधान की रक्षार्थ, आ गये दिन ,पीड़ितों के वीर प्रवर होने के।”[4]
यह कविता तत्कालीन सामाजिक विषमताओं, राजनीतिक विफलताओं और मानव मूल्यों के क्षरण को अभिव्यक्त करती है। कवि समाज में व्याप्त दुःख-दर्द को चित्रित करता है, जहाँ सपने टूट रहे हैं और जनता की पीड़ा असह्य हो गई है। आत्मनिर्भरता का दावा करने वाले देश में सड़क पर प्रसव करती माँ इस दावे की सच्चाई पर प्रश्न उठाती है। इस कविता में समाज में संपन्नता और विपन्नता के बीच बढ़ती खाई को दर्शाया गया है। भोगवादी मानसिकता के कारण अमीर और अहंकारी होते जा रहे हैं, जबकि गरीब शिक्षा से वंचित होकर भीख माँगने को मजबूर हैं। ऊँचे महल और इमारतें होने के बावजूद समाज के वंचित वर्ग की स्थिति दयनीय बनी हुई है। राजनीति अब धर्म के नाम पर लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। जातिवाद के कारण लोकतंत्र के स्तंभ हिलने लगे हैं, जिससे मानव मूल्यों पर गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है।
अंततः कवि आशा व्यक्त करता है कि अन्याय और शोषण के विरुद्ध लोग जागरूक हो रहे हैं। अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे, लोगों को ‘वीर प्रवर’ कहा गया है, जो संविधान और सामाजिक न्याय की रक्षा के लिए आगे आ रहे हैं। यह कविता सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों पर एक करारी चोट है, जो जनता की पीड़ा और बदलाव की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
सुरेश चन्द्र ने अपने साहित्य में नारी सशक्तिकरण को विशेष स्थान दिया है। उनकी रचनाएँ समाज में महिलाओं की स्थिति, उनके अधिकारों और समानता के प्रश्नों को गहराई से उठाती हैं। उनकी कविताओं में नारी की शक्ति, संघर्ष और समाज में उनकी भूमिका को विशेष रूप से उकेरा गया है। कवि ‘नारी समाज का सशक्तिकरण’ शीर्षक कविता में लिखते हैं –
“शोषण के चक्रव्यूह को, सम न्याय-दृष्टि से भेद कर,
कर गये सशक्त नारी समाज को डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ।
निज सत्ता का रच साम्राज्य, बना नर नारी का स्वामी।
न दिया ध्यान नारी-महात्म्य पे, देखीं नारी में केवल खामी ।
नारी-जन्म को किया प्रश्नांकित, पराधीनता तक धकेलकर।
कर गये सशक्त नारी समाज को ।”[5]
उपर्युक्त पंक्ति में इंगित किया गया है कि डॉ. अंबेडकर ने समाज में व्याप्त शोषण के चक्रव्यूह को तोड़कर समान न्याय-दृष्टि का प्रचार किया और नारी को सशक्त बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। पितृसत्तात्मक समाज ने सदियों तक पुरुष को नारी का स्वामी मानते हुए, नारी के अस्तित्व और महत्त्व को नकारा। पुरुष-प्रधान मानसिकता ने नारी को केवल उसकी कमजोरियों के संदर्भ में देखा और उसे पराधीनता की जंजीरों में जकड़ दिया। डॉ. अंबेडकर ने महिलाओं की शिक्षा, अधिकार और स्वतंत्रता की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होंने अपने विचारों और सुधारवादी नीतियों से यह स्पष्ट किया कि नारी बिना समाज और राष्ट्र की प्रगति असंभव है। उन्होंने लिंग भेद के आधार पर हो रहे शोषण को समाप्त करने का प्रयास किया और महिलाओं को अधिकार दिलाकर उन्हें समाज में समान स्थान दिलाने का कार्य किया। यह कविता डॉ. अंबेडकर के योगदान को स्मरण कराते हुए बताती है कि उन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए संघर्ष किया और उन्हें सशक्त बनाया।
अंत में, कवि श्रम और स्वाभिमान का महत्व बताते हुए कहते हैं कि कुछ लोग भाग्य पर निर्भर रहने और मांगकर खाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं, जबकि वे स्वयं श्रम करके खाने में विश्वास रखते हैं। यह कविता समाज में मौजूद दो भिन्न सोच को उजागर करती है – एक ओर परंपरागत जातिवादी सोच और दूसरी ओर समानता । कवि पाठकों को आमंत्रित करते हैं कि यदि वे इस भेद को समझने में असमर्थ हैं, तो वे उनसे मिल सकते हैं, जहाँ वे इस विषय को और सरलता से समझा सकते हैं । कविता सामाजिक परिवर्तन, समानता और श्रम की महत्ता को उजागर करती है और जातिगत भेदभाव की मानसिकता पर प्रहार करती है।
कवि सुरेश चन्द्र का साहित्य, समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने की प्रेरणा देता है। वे अपने साहित्य में स्वप्न और संकल्प शक्ति की महत्ता को रेखांकित करते हैं, जिससे व्यक्ति और समाज उन्नति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। उनकी रचनाएँ दलित साहित्य के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और सामाजिक न्याय की अवधारणा को मजबूत करती हैं। उनकी कविता ‘स्वप्न का परिणाम’ में वे समाज में व्याप्त असमानताओं और अन्याय को दूर करने के लिए संकल्प शक्ति के महत्व पर जोर देते हैं। इसके अतिरिक्त, ‘सोच के ठिकाने’ जातिगत भेदभाव और सामाजिक विषमताओं पर करारा प्रहार करती है और डॉ. अंबेडकर के संविधान के महत्त्व को रेखांकित करती है। समग्र रूप से सुरेश चन्द्र का साहित्य, दलित एवं वंचित समाज के अधिकारों की रक्षा और समतामूलक समाज के निर्माण में एक सार्थक प्रयास है।
सुरेश चन्द्र द्वारा रचित ‘समवाद के उजाले में’ काव्य संग्रह सामाजिक न्याय, समानता और परिवर्तन की दिशा में एक प्रभावी रचना है। उनके काव्य संग्रह “संवाद के उजाले में” में समाज में व्याप्त असमानताओं, शोषण और जातिगत भेदभाव को उजागर किया गया है। उनकी कविताएँ न केवल सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं बल्कि पाठकों को आत्मचिंतन और परिवर्तन के लिए प्रेरित भी करती हैं। उनकी रचनाएँ विशेष रूप से दलित विमर्श, श्रम और स्वाभिमान, नारी सशक्तिकरण तथा सामाजिक समरसता पर केंद्रित हैं। वे स्वप्न और संकल्प शक्ति को व्यक्ति की प्रगति और सफलता के लिए अनिवार्य मानते हैं। साथ ही, वे मनुवादी विचारधारा की आलोचना करते हुए, डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों को समाज की वास्तविक अखंडता का आधार बताते हैं।
उनकी कविता “नारी समाज का सशक्तिकरण” में डॉ. अंबेडकर के योगदान को रेखांकित किया गया है, जिसमें उन्होंने महिलाओं को समान अधिकार और शिक्षा का अवसर दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं, “मायने आत्मनिर्भर होने के” कविता में कवि सरकार की आत्मनिर्भरता की नीति पर सवाल उठाते हुए सामाजिक विषमताओं को उजागर करते हैं।
समग्र रूप से, सुरेश चन्द्र का लेखन दलित साहित्य को समृद्ध करने और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का एक सशक्त माध्यम है। उनकी कविताएँ पाठकों को सोचने, समाज में व्याप्त अन्याय के खिलाफ जागरूक होने और समानता की दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।
संदर्भ सूची-
[1] सुरेश चन्द्र, संवाद के उजाले में, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2024, पृष्ठ -15
[2] सुरेश चन्द्र, संवाद के उजाले में, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2024, पृष्ठ -15
[3] सुरेश चन्द्र, संवाद के उजाले में, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2024, पृष्ठ-39
[4] सुरेश चन्द्र, संवाद के उजाले में, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2024, पृष्ठ-51
[5] सुरेश चन्द्र, संवाद के उजाले में, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2024, पृष्ठ-42
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