मिर्जापुर, बनारस से लेकर समूचे पूर्वांचल और बिहार के कुछ हिस्सों में जो भोजपुरी भाषी और समाज के लोग है उनमें एक खास तरह के गीत की परम्परा देखने को मिलती है, जिसे कजरी कहा जाता और यह विशेषतः सावन महीने में गाया जाता है। इस गीत में एक संस्कृति का वास होता है।
सावन का महीना… मस्ती का महीना… सावन की रिमझिम फुहार में जी भर के भीगने और सराबोर होने का महीना…
गांवों के बागों में कजरी की ललकार का महीना…
तीज और त्यौहार का महीना…
ननद और भौजाइयों के गीत और प्रेम का महीना…
ननद और भौजाई के परस्पर छेड़ छाड़ और शरारतों का महीना… इन्ही सबके बीच हमारी लोक संगीत की एक विधा
“कजरी” जो मन में उल्लास और रोमांच को उपजा देती है उसकी धुन स्मृतियों में छा जाती है…। एक और बात इस कजरी की इति सोहर से होती है कृष्ण जन्माष्टमी के समय…
एक दो बानगी देखिये…
कइसे खेलन जइबू सावन में कजरिया,
बदरिया घेरे आई ननदी।
कवनो संग ना सहेली,
कइसे जइबू तूं अकेली,
छैला रोकि लेहैं तोहरी डगरिया….
बदरिया घेरे आई ननदी….
छोटकी ननदी कय बाति न सहाई पिया……
होइ जाइ लड़ाई पिया… न!
जब करी हम सिंगार….
मुंह बनावैं बार…. बार….
देखि हम्मय करिया बोलैं.. कालीमाई… पिया..
होइ जाई लड़ाई पिया…. न!
जब देखैं हम्मय खात….
बोलयं केतना खाबू भात…
जइसे खाई हम यनकय कमाई…. पिया…
होइ जाई लड़ाई पिया…. न!
मोरे भइया.. आये अनवइया……
सवनवा में नाहीं जाबै ननदी….
सावन का महीना चल रहा है इस सावन के महीने में एक अलग तरह की परंपरा हमारे इस भोजपुरिया समाज में देखने को मिलती है । निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि यह सावन कई तरह के उत्साह और उमंग को लेकर आता है । हमारे समाज में यह सावन उसी तरह से है जैसे हमारे समाज में फागुन होता है आनंद और उत्साह का महीना । हम देखते हैं कि जिस प्रकार से फागुन में फगुआ गाया जाता है उसी तरह से इस सावन महीने में झूम कर कजरी गाई जाती है । कजरी का इस महीने में बहुत महत्व है । घर की स्त्रियां बागों में झूले पर झूलते हुए कजरी की ललकार से पूरे वायुमंडल को संगीतमय बना देती हैं । इस कजरी की परंपरा मिर्जापुर, विंध्याचल और बनारस की धरती से निकली है किंतु यह कजरी वास्तव में पूरी भोजपुरिया समाज की धरोहर है । ननद भौजाई का प्रेम, पति -पत्नी का प्रेम और वियोग इस कजरी की प्रिय विषय वस्तु होती है । वैसे तो यह कजरी कृष्ण और बाबा विश्वनाथ के लिए भी गायी जाती है । माता विंध्याचल के लिए भी इस गीत में उपासना का भाव मिलता है किंतु जो इस गीत की विशेष विशेषता मानी जाती है वह निश्चित रूप से प्रेम ही होती है । कुछ गीत है जिनकी पंक्तियां आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं जिसमें इस कजरी के संस्कार का बीज देखने को मिलेगा…..
हरे रामा सावन की छाई बदरिया बलम निर्दईया ए हरि ।
और
बगिया में लागे ठगा चोर हो तू
आपन लहंगा बटोरे चलूं ननदी
बटोरी चलु ननदी बटोरी चलु ननदी
बदरो निर्दईया कठोर हो तू
आपन लहंगा बटोरी चलु ननदी ।
और एक गीत है जो मिर्जापुर में गाई जाती है मिर्जापुरी कजरी मिर्जापुर को अपने में समेटे हुए है । दो पंक्ति है
मिर्जापुर कईला गुलजार हो कचौड़ी गली सून कइला रजऊ
कईली हम कवना कसूर हो
कचौड़ी गली सून कइला रजऊ ।
इसी तरह का एक गीत पिया से पत्नी कहती है बहुत अच्छा भाव है इस गीत में ।यह माना जाता है कि जिसके हाथों में मेहंदी का रंग जितना चटक होता है उसका पति उतना ही उससे अधिक प्रेम करता है, कहती है..
पिया मेहंदी लिया द मोती झील से जाके साइकिल से ना
पिया मेहंदी लिया द मोती झील से जाके साइकिल से ना ।
मेहंदी हाथ में सजाईब हम पड़ोस में देखाइब
तोहसे प्यार करीला ए पिया दिल से जाके मोतीझील से ना ।
कजरी की यह विशेषता है कि इसमें प्रेम का दोनों पक्ष जीवंत होता है इसमें संजोग और वियोग दोनों की अपनी विशेषताएं समाहित रहती है ,यानी पत्नियों की इच्छा होती है कि सावन में पति पास रहें क्योंकि जो बारिश की बूंद है पति के समीप रहने पर आनंददाई लगती है वही पति के दूर रहने पर अत्यंत कष्टदायक होती है ।यह प्रेम का मनोविज्ञान है और साथ ही हमारी भोजपुरी कजरी का भी मनोविज्ञान है । देखिए एक बानगी जो एक पत्नी के मन की दशा कहती है
सैयां बिन भावे ना सवनवा हो रामा
यह मौसम बारिश का और खेती किसानी का मौसम है ।पति जो कि किसान होता है उसे सारी अपेक्षाएं इस खेती से होती है और पत्नी की सारी अपेक्षाएं पति से होती है एक सुंदर चित्र देखिए पत्नी कुछ जिद करती है तो पति क्या कहता है देखिए….
अबकी धनवा के होखे द रोपनिया
गोरी हो दिला देबे तूहे झूलानिया ।
आज भी प्रेमचंद्र का गांव और किसान वही है । इस खेती से हमारा लगाव और हमारी अपेक्षाएं सदियों से रही हैं ।यह कजरी इन सारी भावनाओं को समेटे हुए है ।
इस सावन में ननद भौजाईयों का आपसी हंसी ठिठोली भी खूब चलता रहता है ।
इसी प्रकार का एक गीत कृष्ण के ऊपर भी सुनने को मिलता है जिसमें कृष्ण राधा से मिलने के लिए स्वांग रचा के मनिहारी का भेष बदल देते हैं पंक्ति देखिए….
हरे रामा कृष्ण बने मनिहारी पहन लिए सारी ए हरी
राधा से मिलन के बहाना ढूंढ
लीहले कृष्ण छलिया
पाऊंगा में पहने पायलिया माथे पर लगाए टिकुलिया
अरे रामा सूरत लगे बड़ी प्यारी पहन लिए साड़ी ए हरी ।
ये गीत सब हमारी धरोहर हैं…इसमें परम्पराओं का वास होता है, संस्कृतियों का संरक्षण होता है और अपनी मिटटी की सोधी सुगन्ध से मन महक उठता है…। आज ऐसा लगता है गांव से ये भी धीरे धीरे लुप्त होती जा रही हैं । यह कजरी सीखने से नही संस्कार में मिल जाती थी । गांव में दादी नानी मन से गाती थी । आज रिमिक्स और फ़ास्ट म्युजीक के सामने यह गुम सी हो गयी है परम्परा ।
गांव में सावन की रातें, बरसते बादल, काली रात, चहुँओर झींगुर की आवाजें और उन्ही में से गूंजती कजरी की धुन मानो सारे प्रकृति के इन उपादानों को जीवन्त कर देती थी…। हमारे भोजपुरी के विराट साहित्य में बहुत सी विधाएँ ऐसी हैं जो हमें उसपर गर्व करने का कारण देती है…।
बच्चों को किताबो के साथ इन ऋतुओ और प्रकृति को समझ सकने की संवेदनशीलता जरूर उपजने दें…
जीवन और उसके तह में जीने की प्रेरणा हमें इन्ही से मिलती है….
आज हम चाहें कितना ही विकास क्यों न कर लें किन्तु हमारी आत्मा हमारे संस्कृतियों में ही वास करती है ….।
बच्चों को इंग्लिश मीडियम में बिल्कुल भेजें किन्तु उनसे उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और आनंद न छिनें क्योंकि यह ऐसा संस्कार है जो पीढ़ियों से पीढ़ियों में हस्तांतरित होता है।