यारों अब तो क़ैदख़ाने में,जी नहीं लगता,
अब तो मुफ़्त की खाने में,जी नहीं लगता।
यारों दे रही हैं अब तो,हड्डियाँ भी जवाब,
अब तो ज़िन्दगी बचाने में,जी नहीं लगता।
पड़ गए हैं महफ़िलों में,जाने कब से ताले,
अब कोई भी रंग ज़माने में,जी नहीं लगता।
जाने कब तक चलेगा,खिज़ाओं का मौसम,
अब तो मोहब्बत निभाने में,जी नहीं लगता।
कोई रूठता है तो रूठ जाये,अपनी बला से,
हमारा किसी को मनाने में,जी नहीं लगता।
हमने पर्दा लगा रखा है,अपने मुख पे ‘मिश्र’
अब कोई भी सुर सजाने में,जी नहीं लगता।