आज मैंने उस बहती नदी को समीप से देखा
जो हर रोज पड़ती है मेरे अध्व में……
मैं गुजर जाती हूं अपने जीवन की सूझ बूझ
में उलझी उलझी…..
मगर शायद आज नियति में था उससे मिलना
वो वैसी बिल्कुल नहीं है जैसी दिखती है दूर से
शांत,सौम्य ,सरल ……
उसमें तरंग है, चंचलता है, उमंग है
उत्साह है ,चाहत है मंजिल तक पहुंचने की
वो मुझे सिखाया रही थी ……
कैसे छोड़ दिया जाता है रास्तों को
मंजिल पाने के लिए ,वो मुझे बता रही थी
कैसे व्यस्त रहना है खुद के विचारों में
नदी बहती जा रही थी…..
मैंने कहा तुम्हें सिर्फ बहते जाना हैै
मुझसे अलग हो तुम ,वो हसने लगी
उसने कहा “एक लड़की और नदी का जीवन लगभग एक सा ही है”
कभी फुरसत में आओ मेरे उद्गम मुहाने पर
फिर वहां से सीधे समंदर के पास चली जाना
जब दोनो जगह हो लो फिर आना मेरे पास
मैं तब बताऊंगी अपनी यात्रा की कहानी……
मैं प्राचीन होते हुए भी नित्य नवीना हूं
मैं प्रतिपल परिवर्तन को महसूस करती हूं
तुम भी मेरे ही तरह हो क्यों हम सखि बन जाए …..