पलायन,
महज घर छोड़ कर
जाना ही नहीं होता
पलायन सपनों का
बिखर जाना
और हृदय का भर जाना
होता है गहरे घावों से
सर पर पोटली लिए
गोद में बच्चे लिए
बुजुर्गों को पीठ पर लादे
दहकती गर्म कंक्रीट पर
चलते जाना मीलों
आसान नहीं होता होगा
कितने टुकड़ों में
बंट गया होगा उसका वजूद
जब उसने थरथराते हुए होठों से
बताया होगा अपना निर्णय
गांव चलने का
खाली देहरी और ठंडे चूल्हों ने भी
दी होगी मौन सहमति
और तब शुरू हुई होगी
यह लंबी यात्रा
कैसा लगता होगा
ऐसे चल पड़ना
नए सपनों की तलाश में
नए अपनों की तलाश में
ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं
एक टक निहारती होंगी
अपनी सूनी आंखों से
और जीवन का यह निर्मम सत्य
कैसे हो गया होगा
एक पल में, परिभाषित
पलायन
महज घर छोड़ कर