सभ्यताओं का भी
अपना ही हिसाब होता है
अपना ही ढंग होता है
अपने ही ढंग से
बनती हैं सभ्यताएं
अपने ही ढंग से
ढहती हैं सभ्यताएं।
ढहने के साथ ही
कुछ सभ्यताएं
अपने पीछे
छोड़ जाती हैं
ऐसे चिन्ह
जो सूचक होते हैं
उनके भव्य होने का
कुछ सभ्यताएं
छोड़ जाती हैं
ऐसे मूल्य
जो सूचक होते हैं
उनके दिव्य होने का।
लगती जरूर हैं
एक सी
किंतु भव्य होना
एक बात है
और दिव्य होना
एक।
महज संयोग नहीं है
कि आज
भव्यता की उपासक
सभी मौजूदा सभ्यताएं
खड़ी हैं
ऐसे मोड़ पर
जहाँ जान पड़ता है
निश्चित
उसका ढहना
किंतु यह भी दिखने लगा है
लगभग लगभग स्पष्ट
कि शायद
खुद को बचा ले जाए
इस संक्रमण से
वह सभ्यता
जो भव्य नहीं
दिव्य है।
सचमुच
भव्य होना एक बात है
और दिव्य होना
एक।

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