न हो जहां क़द्र, उधर जाते क्यों हो
जो रूठा बेसबब, उसे मनाते क्यों हो
दिल ओ बदन की ज़रूरतें अजीब हैं,
फिर जो न पचता, उसे खाते क्यों हो
जो बदल दे अपना रुख़ ज़रा लोभ में,
फिर उसको यार अपना, बनाते क्यों हो
अपने कर्मों का फल मिलेगा ज़रूर ही,
फिर यूं हक़ीक़त से, मुंह चुराते क्यों हो
न समझ पाया ख़ुदा भी इस इंसान को,
वक़्त परखने में उसको, गंवाते क्यों हो
एक बार जो गिर गया सबकी नज़र में,
उसे फिर से अपने सर, बिठाते क्यों हो
आदमी की हरक़तों को पहिचानिये ‘मिश्र’,
यूं क़ातिलों को अपने घर, बुलाते क्यों हो