उत्तर भारत में प्रकृति की उपासना का सबसे बड़ा पर्व छठ पूजा को माना जा सकता है। दीपावली के बाद यदि किसी पर्व में उत्तर भारतीयों का उत्साह बना रहता है तो वह छठ पूजा ही है। कहने के लिए तो इस पर्व का संबंध प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन आज के इस बाजारवादी समय में यह शक्ति प्रदर्शन एवं दिखावे के साथ-साथ बाजार की चमक-दमक के रूप में उपभोक्तावादी संस्कृति का हिस्सा बनते जा रहा है।
प्रकृति की उपासना के इस सबसे बड़े पर्व की शुरुआत कार्तिक में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को नहाय-खाय से होती है। इस पर्व पर व्रत रखने वाली स्त्रियों के स्नानादि करके भोजन ग्रहण कर लेने के बाद ही घर के सभी लोग भोजन ग्रहण कर सकते हैं। पंचमी को पूरे दिन व्रत रखा जाता है, शाम को व्रती, चावल और गुड़ से बनी खीर (जिसे उत्तर भारत में लपसी कहा जाता) खाती हैं। निर्जला व्रत षष्ठी के दिन रखा जाता है जो सप्तमी की सुबह सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही पूरा होता है। षष्ठी के दिन पूजा के लिए प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद में ठेकुआ, पूरी सहित तमाम मौसमी फलों और सब्जियों को रखा जाता है। षष्ठी की शाम को नदी या तालाब के किनारे से डूबते सूर्य की आराधना कर अर्ध्य दिया जाता है। रात में तरह-तरह के इससे सम्बंधित गीत और नृत्य का आयोजन होता है। इस समय गाये जाने वाले गीत पारंपरिक होते हैं
यथा –
कांचे ही बांस के बहंगिया
बहंगी लचकत जाए।
श्रद्धा के अनुसार लोग मन्नत पूरी होने पर छठ में कोसी रखते हैं। कोसी में पांच गन्ने को एक दूसरे से बांधकर छत्रनुमा खड़ा करते हैं। ये पांच गन्ने प्रकृति के पांच तत्वों अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल और वायु को दर्शाते हैं। सप्तमी को सुबह उगते सूर्य की उपासना कर अर्ध्य दिया जाता है। व प्रसाद वितरण किया जाता है।
छठ त्यौहार के पूरे समय परिवार के लोग सात्विक भोजन करते हैं और साथ ही चारों दिन व्रती कुश की चटाई पर सोती हैं। वैसे तो व्रत रखने वाली महिलाएं ही होती हैं लेकिन महिला की तबीयत खराब होने या किसी अन्य विपरीत परिस्थिति में उस महिला के पति भी व्रत रख सकते हैं।
इस तरह व्रत की पूरी प्रक्रिया में आपको कहीं से भी नहीं लगेगा की बहुत ज्यादा चमक दमक, दिखावे, बल प्रयोग या शक्ति प्रदर्शन का यह त्यौहार है। लेकिन इधर कुछ वर्षों में देखा जाए तो छठ पूजा पर बाजार का सीधा-सीधा प्रभाव पढ़ता हुआ दिखाई देता है। इसके पीछे के कारणों पर जाएं तो आज के समय में घर-घर में टीवी की पहुंच और उस पर आने वाले तमाम तरह के धारावाहिकों ने छठ को एक आकर्षण और प्रतिष्ठा का विषय बना दिया है जिसका प्रभाव छोटे शहरों से लेकर गांव तक की महिलाओं और इस छठ पूजा के व्रत व्रतियों में देखा जा सकता है जबकि यह मात्र आस्था और प्रकृति की उपासना और पूजा का विषय है। इस पूजा में बाजार का ऐसा प्रभाव पड़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को आस्था परंपरा और इसके सही पूजा विधान से दूर होकर दिखावे मात्र के रूप में शक्ति प्रदर्शन हेतु बैंड-बाजा, पटाखे, आर्केस्ट्रा का शो तक ही सिमटता चला जा रहा है। कहीं-कहीं तो बंदूक की फायरिंग भी की जाने लगी है।
गाँवों में तो फिर भी ठीक है लेकिन शहरों में पर्याप्त तालाब या नदियों के न होने के कारण बचे हुए तलाबों के किनारे पूजा के लिए अपनी जगह सुरक्षित करने हेतु वल और शक्ति प्रदर्शन करते हुए लोगों को देखा जा सकता है।
शहरों में इस दिन निकल जाइए तो आप पाएंगे की बाजार में प्रत्येक वस्तु जो इससे संबंधित है तीन से पांच गुने दाम में बिकने के लिए तैयार है। तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विज्ञापन आजकल छठ से संबंधित आने लगा है। सिटी मॉलों में देखा जा सकता है कि- दिवाली की तरह ही छठ पर भी तमाम तरह के ऑफर देकर ग्राहक को लुभाने का प्रयास किया जाता है। नेताओं से लेकर तमाम तरह के तथाकथित समाजसेवी संस्थाएं भी अपना होर्डिंग- बैनर आदि लगाकर शुभकामनाएं और बधाइयां देने के बहाने अपना विज्ञापन और प्रदर्शन करते हुए नजर आते हैं। इस पर्व का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर इतना ज्यादा पढ़ा है कि आस्था के नाम पर कुछ भी बेच व खरीद सकता है।
उत्तर भारत की सरकारें ही नहीं बल्कि प्रत्येक राज्य में रहने वाले उत्तर भारतीयों के प्रति उस राज्य की सरकार छुट्टियां और सुविधाएं देने के साथ-साथ अपने लिए वोट बैंक बनाने का भी प्रयास करती हैं इस तरह कहा जा सकता है कि प्राकृति की उपासना का यह पर्व बाजार की उपासना करने लग गया है।
सही मायने में देखा जाए तो छठ पर्व उत्तर भारत के बिहार और उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृति का अहम हिस्सा है। और उसकी खूबसूरती उसके लोक में बसती है। जिसपर बाजार ने कब्जा कर लिया है। आज जरूरत है सावधान रहने की। आज अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब इसकी हालत भी दशहरा और होली के हुड़दंग जैसा हो जाएगा।