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पुस्तक – कुछ नीति कुछ राजनीति
लेखक – भवानीप्रसाद मिश्र
पुस्तक समीक्षा – मयंक रविकान्त अग्निहोत्री

भारतीय साहित्यिक इतिहास में श्रेष्ठ रचनाकारो की गिनती में भवानीप्रसाद मिश्र जी को सम्मिलित किया जाता है। कुछ नीति कुछ राजनीति पुस्तक उनके श्रेष्ठ रचनाकारों की गिनती में शामिल किए जाने का एक प्रमाण है।

इस पुस्तक में सधा हुआ गम्भीर लेखन मिश्र जी द्वारा किया गया है। हिंदी के वरिष्ठ आलोचक रहे नामवर सिंह जी ने कहा था कि ” विचारधाराओं की बाहुल्यता का होना बुरा नही है यह तो परिवर्तन का एक जरिया है।” इस पुस्तक में भी विचारो एवं संस्कृतियों के बीच के सामंजस्य को दिखाने एवं नए प्रतिपादनों को खोजने का प्रयास मिश्र जी द्वारा किया गया है। मिश्र जी प्रयोगवादी साहित्यिक एवं राष्ट्रीय विचारधाराओं पर तो बल देते हुए दिखतें है साथ ही साथ भारतीय दर्शन और संस्कृति से जुड़े रहने की बात भी पुस्तक के माध्यम से कहते है।

समाज को लेकर उनके प्रगतिशील भाव है जो उनके द्वारा लिखे आलेखों में परिव्याप्त है। वे लिखते है कि ” सोलहवीं शताब्दी के बाद हम आज सारे संसार में सब कुछ भूलकर सुविधाएं जुटाने और छीनने की ओर दौड़ देख रहें है वह इंद्रिय प्रधान मूल्य की देन है।” ध्यातव्य यह है कि वास्तव में इन्द्रियगत मूल्यप्रधान होते जा रहें है और इसमें क्रमशः वृद्धि ही होनी है । इसके उलट इंद्रियातीत मूल्यों का ह्वास समाज में बराबर देखने को मिलता है।

भारतीय संस्कृति एवं मान्यताओं के अनुसार भौतिक सुख साधन को ज्यादा तरजीह नही देनी चाहिए बल्कि मानसिक एवं आध्यात्मिक सुख प्राप्त करते रहने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। मिश्र जी इस विचारधारा से बहुत अधिक प्रभावित नही दिखाई देते । उनके अनुसार वर्तमान में हमारी संस्कृति के मुख्य घटक पारलौकिक, धार्मिक, नैतिक और सर्वहितकारी न होकर इहलौकिक, धर्म निरपेक्ष, राजनैतिक एवं स्वार्थपरक हो गए है और उन्होंने पुस्तक के माध्यम से सामाजिक जीवन में व्याप्त इन समस्याओं का निदान अपने मापदंडों के अनुसार प्रस्तुत किया है।

उन्होंने एक बड़े ही दिलचस्प मुद्दे पर भी प्रकाश डाला है जिसमे उन्होंने कहा है कि ब्रिटिश हुकूमत ने भारत वर्ष पर कई सालों तक राज्य किया उन्होंने भारत की संस्कृति एवं सभ्यता को भी समझा परन्तु अंग्रेज साहित्यकारों ने कभी भी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को महत्वपूर्ण नही माना। यह काफी हद तक सही है अंग्रेज विद्वान विश्व की अन्य परम्पराओ एवं संस्कृतियों को ब्रिटिश संस्कृति के उद्भव का केंद्र मानते है पर भारत के लिये वे मतैक्य है कि भारत से उन्होंने कुछ नही सीखा परन्तु उन्होंने जेम्स कजिन्स एक अन्य अंग्रेजी विद्वान के बिचारों का हवाला देकर अंग्रेजी विद्वानों के भारत के प्रति मतभेद को स्पष्ट किया है।
यह सम्भव ही नही की इतने साल किसी देश पर राज करने के बाद भी उन्होंने उस देश से कुछ सीखा न हो। बल्कि विदेशी और खासकर अंग्रेजी विद्वानों ने भारत में उस वक़्त व्याप्त सती प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत आदि को लेकर समस्याओं पर अपनी रोटियां सेंकी और भारत को ओछी दृष्टि से देखते रहे।

मिश्र जी ने भारतीय संस्कृति को लेकर एक बड़ी बात लिखी है , की अन्य प्राचीन संस्कृतियां अब अपना महत्व खो चुकी है जैसे रोम और एथेंस की संस्कृतियां अब पहले जैसी नही रह गई बल्कि वे कुछ और ही हो चुकी है और इसी को लेकर उन्होंने मैसोपिटोमिया, और बेबिलोनिया संस्कृतियों का उदाहरण भी जोड़ा है। पर भारतीय संस्कृति को लेकर उन्होंने कहा है कि आज भी हमारी संस्कृति कई बदलावों के बाद प्राकृतिक बदलाव करती रही है। तमाम समस्याओं , आक्रमणों आदि का सामना करने के बाद भी भारतीय संस्कृति मुरझाई नही है।

परन्तु जिन संस्कृतियों के नष्ट हो जाने एवं बदल जाने की बात मिश्र जी ने लिखी है आज उन देशों ने अकल्पनीय विकास भी किया है। यह भी एक सत्य है जिसे हमें छुपाना नही चाहिये। इन संस्कृति वाले राष्ट्रों ने तरक्की की, नयी विचारधारा को अपनाया एवं आज अधिकांश राष्ट्र विकसित है।
वही भारत आज उन सभी से पीछे है। क्योंकि समय के अनुसार यहाँ पर बदलाव कम हुए बल्कि आक्रमण अधिक हुए यहाँ कई लोग आये भारत पर राज्य किया इसे लूटा और संस्कृति को मिट्टी में भी मिलाया। संस्कृति तो बची रही वैभव खत्म हो गया।

यदि हम और पीछे जाए तो देखेंगे कि हूणों ने सबसे पहले भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाई। ऐसा अन्य संस्कृतियों के साथ भी हुआ होगा परन्तु वहाँ के लोगो ने संस्कृति का रोना बहुत अधिक नही रोया बल्कि प्रगति की ओर अग्रसर रहे। मेरे विचार से एक संस्कृति कहीं से आती है और किसी अन्य संस्कृति में शामिल हो जाती है और उसके परिणाम या तो सकारात्मक होते है या नकारात्मक। भारत के प्रति यह समझा जाए तो इसे परिभाषित कर पाना कठिन है। यह चाय में बिस्किट डुबो कर खाने जैसा नही है। इसके लिए गहन अध्ययन एवं पठन पाठन की आवश्यकता है जो अभी अनवरत है।

गांधी जी एक उनके विचारों एवं आदर्शो से भवानीप्रसाद मिश्र जी प्रभावित रहे है यह सर्वविदित है, उन्होंने गांधी जी के विचारो एवं मान्यताओं पर भी अपने विचार इस पुस्तक के माध्यम से प्रकट किए हैं। उन्होंने कहा कि गांधी जी ने शुरुआत में कहा कि वे ईश्वर को मानते है फिर बाद में उन्होंने कहा कि वे सत्य को ही ईश्वर मानते है। और यही से उन्होंने भारत को सत्य से जोड़ते हुए लिखा कि भारत का सबसे बड़ा धर्म सत्य रहा है, सत्य हमेशा से ही स्थिर रहा है वो आज कुछ और कल कुछ और वाला नही है वह जो है वैसा ही है और यहीं पर उन्होंने पश्चिमी सभ्यता पर निशाना लगाते हुए लिखा की अन्य सभ्यताओं ने कामचलाऊ सत्य को माना या व्यवहारिक सत्य को स्थापित कर मानवता की हानि की है।

यह तो सत्य ही है कि मानवता की हानि हो रही है परन्तु सिर्फ विदेशों या उनकी सभ्यताओं में ही नही बल्कि भारत वर्ष में भी इसका प्रकोप है। हमारे यहां की अपेक्षा विदेशों की स्थिति अधिक दुःखद है। परन्तु सत्य का स्थिर रहना या जो जैसा सत्य था आज के परिवेश में वो वैसा ही रहे यह कुछ ठीक नही लगती । कल का सत्य आज का नही हो सकता और आज का कल को नही सौंपा जा सकता।

मिश्र जी ने साम्यवाद एवं प्रजातंत्र पर लिखते हुए प्रजातंत्र में व्याप्त समस्याओं का जिक्र किया है , उन्होंने यह कहा कि प्रजातंत्रीय राष्ट्रों में निर्णयों में सहमति होने में काफी समय लग जाता है। कोई भी छोटी या बड़ी समस्या पर सहमति नही बन पाती। संस्कार, अचार विचार आदि अलग थलग होते है। नियम कानून भिन्न भिन्न होते है, जो किसी के हित में तो किसी के अहित में हो जाते है। शिक्षा, शासन, अनुशासन समाज के रूप आदि का कोई एक साफ़ जवाब प्रजातंत्र या विकासवाद के पास मौजूद नही है , इसका जवाब हमे साम्यवाद में मिलता है परन्तु वह कट्टर नीति, कठोर , क्रूर शासन प्रणाली एवं हथियार के बल पर आदेशों का पालन कराने की नीति पर चलता है जो की सही नही है। साम्यवाद बर्बर अत्याचारों को बढ़ावा देता एवं अभिव्यक्ति एवं स्वतन्त्रता का अधिकार छीन लेता है प्रजातंत्र एवं साम्यवाद दोनों ही कही न कही असफल रहे है और यह बात सत्य भी है।
इस पुस्तक का ग्यारह शीर्षकों पर लेखन किया गया है जिसमे गांधी जी एवं उनसे सम्बंधित घटनाओं एवं विचार की भरमार है। मिश्र जी को सरलता से इस पुस्तक का नाम ही गांधी नीति और राजनीति कर देना चाहिए था इसमें कोई हर्ज की बात नही है उन्होंने अपने विचारों को कम एवं गांधी जी को पूरी पुस्तक का केंद्र बनाए रखा है।

पुस्तक का पहला शीर्षक दूसरे का पूरक है या एक ही है पहला है अहिंसा : संस्कृति का आधार स्तम्भ एवं दूसरा है अहिंसा की प्रतिभा इन दोनों लेखों में अहिंसा की महिमा का बखान मिश्र जी द्वारा किया गया है अपितु यह दोनों एक ही शीर्षक के अंतर्गत आसानी से लिखे जा सकते थे।

अहिंसा को धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक पहलू से जोड़ते हुए मिश्र जी ने लिखा है कि यह तीनों से जुड़कर भी सामाजिक अधिक है। पर उन्होंने इन तीनो की ही एक सन्तुष्टपरक व्याख्या नही की है।
परन्तु एक बड़ी सही बात वे लिखते है कि धर्म में बदलाव होते जरूर है परन्तु बड़ी ही मुश्किल से। सनातन धर्म की भिन्न व्याख्याएं तो हो सकती है परन्तु मूल वही रहता है। गीता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि गीता को कई प्रकार से कई विद्वानों ने लिखा परन्तु मूल श्लोक नही बदले न ही उसका रूप। वह हमारी मान्यता है और उसे हमे हर हाल में मानना चाहिए।

इसमें उन्होंने गांधी जी का हवाला देते हुए लिखा की अहिंसा अहंकार को नष्ट कर देती है एवं हमने पश्चिम की तरह खून बहाकर, अत्याचार कर बंदूक के बल पर नही चलना हमे अहिंसा के मार्ग को अपनाते हुए उसी का अनुसरण करना है यह बात और थी की हमारी आज़ादी के समय तकरीबन 10 लाख लोगो ने जाने दंगो में गँवाई एवं बड़ी संख्याओं में शोषण एवं बलात्कार हुए। यह अहिंसा वादी राष्ट्र का एक काला सच रहा है जिसमे युद्ध ना होते हुए भी नरसंहार हुआ।
तीसरे शीर्षक ” लेखक गांधी : एकल्फ्ज़े दर्द ” में उन्होंने गांधी जी की विचारधारा आम जन के प्रति कैसी रही उस पर प्रकाश डाला है। गांधी जी की बेचैनी रचनात्मक थी वे स्वयं को असहाय नही समझते थे। गांधी जी ने कहा है कि मैं एक राजनीतिज्ञ हूँ ऐसी राजनीती का, जो अपनी शारीरिक शक्ति भगवान को जानने में लगा रहा है। गांधी जी ने अपने कई विचारो से राष्ट्र को संभाला एवं पोषित तो किया है परन्तु कई जबरन विचार मुल्क के लोगो एवं राजनीति पर भी थोपे है उसका जिक्र मिश्र जी ने नही किया। इसके उपरांत गांधी जी की जीवनी के कुछ अंशों को इस शीर्षक में जगह देकर खानापूर्ति की गई है। इसी में एक कविता के माध्यम से उन्होंने गांधी जी के प्रति अपनी श्रद्धा ज्ञापित की है। इसके उपरांत अन्य शीर्षकों पर नजर डालें तो गांधी : खेत भी बीज भी, गांधी नीति पर भी गांधी जी के दर्शन से पुस्तक को भरा गया है। उसके बाद लेव टॉल्सटॉय का दर्शन लिखा गया है यह इसलिए भी लिखा गया होगा क्योंकि गांधी जी ने टॉल्सटॉय आश्रम की स्थापना की थी और वे टॉल्सटॉय से प्रभावित रहे है। टॉल्सटॉय ने लिखा है कि दुनिया की आज की स्थिति के वावजूद धर्म को व्यवहारिक बनाया जा सकता है एवं धर्म को आचरण में उतारने के प्रयास करना चाहिये। जब वे ये लिख रहे थे तब वे एक युद्ध में अधिकारी थे।

मिश्र जी ने टालस्टाय और गांधी जी को एक समान समझा है । वे दोनों की विचारधारों से प्रभावित हुए क्योंकि दोनों तकरीबन एक जैसे थे । यह कई मायनों में हकीकत है कि टॉल्सटॉय ने जो तर्क एवं तथ्य दुनिया के सामने रखे है वो अनुकरणीय एवं प्रचारणीय है। उन्होंने मानवतावाद एवं धर्म को लेकर कई बार लिखा है जिसमे उन्होंने लिखा है कि हमे रोज अपनी जरूरतें कम करते जाना चाहिए दूसरों से लाभ नही लेना चाहिए । कुल मिलाकर उन्होंने विकासवाद को सामाजिक बुराइयों एवं दुर्गणों का जिम्मेवार ठहराया है उन्होंने लिखा की जिस तरह से आज समाज चल रहा है उससे शब्द अपना मतलब खो देंगे एवं नँगा होकर नाचना कला कहलायेगा एवं अपशब्द बड़ा साहित्य।
आज के परिवेश में यह बात उचित बैठती है कि नंगापन आज कला बन चुकी है एवं गालियाँ और अवैक्यारिणीक भाषा अधिक पसन्द आने वाला साहित्य। मिश्र जी के मुताबिक टॉल्सटॉय अहिंसा के समर्थक थे।

इसके आगे अन्य शीर्षक “इस व्याकुलता को समझिये” में उन्होंने शस्त्रीकरण के विरोध में आवाज उठाई है। उन्होंने लिखा की स्वार्थ एवं लोलुपता के बढ़ रहे कारण शस्त्रीकरण का नया चेहरा है। उन्होंने इसे भयंकर स्थिति की संज्ञा दी है।

भारत की राष्ट्रीयता में उन्होंने लिखा की किसी भी चर्चा में वजन लाने के लिये वेदों का सहारा लिया जाता रहा है। भौगोलिक दृष्टि से न सही सांस्कृतिक दृष्टि से हम एक राष्ट्र के रूप में जुड़े रहते है। परन्तु हम अपने प्राचीन इतिहास पर झूठा अभिमान करते है। हम दकियानूसी परम्पराओ, विचारधाराओं में उलझे रहे एवं आपस में बंटे रहे जिसका फायदा अन्य जातियों ने युद्ध कर उठाया परन्तु हमने फिर अपनी महानता का गुणगान करते हुए कहा कि हमने अन्य जातियों को अपने में मिला लिया है। और उनका अस्तित्व हमसे रह गया परन्तु फिर हम यह भी कहीं न कहीं मानते है कि दो कौमे आयी जिन्हें हम अपने में समाहित नही कर सके। उनकी विचारधारा , परम्परा आदि हमपर हावी हुई। जिससे हम उनके रंग में ढलने लगे। यह भोग हुआ यथार्थ है हम इससे सदैव बचते ही रहे हैं। यह हमारी आपसी समन्वयता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है।
आगे के लेख निर्माण की नयी दिशा में उन्होंने प्रजातंत्र एवं साम्यवाद को परिभाषित किया है। पश्चिमी ढंग के प्रजातंत्र एवं साम्यवाद की कमियां उन्होंने निकाली है। उन्होंने इसकी तुलना गांधी जी के विचारो से करते हुए कहा गांधी जी का संस्कृति विचार ज्यादा कारगर रहा है। हमारे राष्ट्र में अनेक संत , समाज सुधारक ,राजनेता एवं साहित्यकार रहे है जिन्होंने जनजागरण एवं राष्ट्रनिर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया है।

अंत में सर्वोदय पत्रकारिता में उन्होंने लिखा कि गांधी जी ने पत्रकारिता को एक सेवा के रूप में माना था। स्वस्थ्य पत्रकारिता ही सर्वोदय है। पत्रकार को शब्द शुद्धि पर जोर देना चाहिए एवं बात को यथाउचित ढंग से समाज के सामने रखना चाहिए ना की उसे बढ़ा चढ़ा कर या उसमे नमक मिर्च लगा कर ।
सत्य के प्रयोग की तरह पत्रकारिता सत्य को खोज रही है। उन्होंने कहा खबर देने में सब्र का सहारा लो और मन में मलाल मत रखो।

इसी तरह गांधी जी के आदर्शो एवं विचारो को पुस्तक में समेटे हुए यह पुस्तक अपने अंजाम पर पहुँचती है ।
समस्त प्रयास इंसान का इंसान बनने के लिए ही है।
‘हिन्दी के कवि थे रघुवीर सहाय, जिन्होंने लिखा कि –

राष्ट्रगीत में भला कौन वह भाग्य विधाता है?

फटा-सुथन्ना पहले जिसका गुन हरिचरण गाता है.

आजादी के बाद भी उपनिवेशवाद की जो छाया मौजूद थी उसका विरोध करते हुए रघुवीर सहाय ने ऊपर की जो पंक्तियां लिखी थीं उन पर आज की तारीख में पन्द्रह सीडीशन के आरोप लग जाते क्योंकि इसमें सीधे राष्ट्रगीत का मजाक उड़ाया गया है।
इस किताब के सभी लेख जो कि मूलतः गांधी विचारधारा से प्रेरित हैं, पाठकों के सामने बहुआयामी गांधी दर्शन एवं अल्प मात्रा में भवानीप्रसाद मिश्र जी का विश्लेषण बहुत जरूरी और महीन चीरफाड़ करते हैं. लगभग सभी आलेखों में दिए गए वर्तमान, अतीत और देश-विदेश के उद्धरणों के कारण यह जटिल विषय ज्यादा गहराई और बहुत आसानी से पाठकों को समझ में आता है। परन्तु इस पूरी पुस्तक में जितने भी द्रष्टव्य एवं उदाहरण दिए गए है वे सब विदेशी विद्वानों के हैं भारतीय विद्वानों एवं विचारकों के नाम पर एकमात्र गांधी जी है। अतः यह पुस्तक गांधी बनाम विदेशी विचारक ज्यादा दिखती है। मुझे यह समझने में परेशानी होती है कि इतने बड़े राष्ट्र में अनेकोनेक विद्वान होने के वावजूद उनके विचारों को जगह क्यों नही दी गई। इन सबके परे की बहस से जुड़े सभी देखे-अनदेखे पहलुओं पर सही दिशा में विस्तार देती यह एक बेहद समसामयिक किताब है।। यह किताब आपके अंदर की अनेक धारणाओं को चूर चूर भी करती है इसलिए इसे पढ़ना बेहद आवश्यक है। कुल मिलाकर देश, देशप्रेम, गांधी चिंतन, साम्यवाद एवं प्रजातंत्र को समझने और इस बहस को सही दिशा में आगे ले जाना चाहने वालों के लिए यह एक अच्छी और जरूरी किताब है।

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