अक्सर हम हिंदी को राष्ट्रभाषा के काल्पनिक पचड़े में उलझाना चाहते हैं। मगर यह तर्कपूर्ण सत्य है कि हिंदी राष्ट्रभाषा थी इसीलिए ब्रिटिश भारत से आधुनिक स्वतंत्र भारत बनने के क्रम में संवैधानिक रूप से राजभाषा के पद पर हिंदी आसीन हुई। राष्ट्रभाषा ही राजभाषा के पद पर आसीन होती है। अतः यह कुतर्क न परोसा जाए कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है।
आधुनिक विश्व के किसी भी राष्ट्र के व्यवस्था में राजभाषा और #राष्ट्रभाषा में भिन्नता नहीं हैं । इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने भी हिंदी को स्वयमेव राजभाषा, राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकार किया। दरअसल समस्या कहीं और है। हम भारतीय अपनी भाषा को अंग्रेजी मानसिकता की वजह से कमतर सिद्ध करने की आड़ में इस प्रकार के नाटक करने के आदी हो चुके है।
संविधान का अनुच्छेद 351 एक सशक्त, समर्थ समावेशी हिंदी की बात करता है। मगर हम हिंदी को इन तीनों से विमुक्त रूप में अपनाना चाहते है। राष्ट्रभाषा सिद्ध करने से क्या होगा? जो चीज है उसे दुबारा क्यों ?
यह सुखद संयोग रहता है कि हिंदी एवं उर्दू के महान कवि,संवाद लेखक, उपन्यासकार एवं महाकाव्य ‘महाभारत’ पर आधारित ऐतिहासिक टेलीविजन धारावाहिक ‘महाभारत’ की पटकथा लिखकर अपनी लेखनी को अमर करने वाले डॉ. राही मासूम रजा के जन्मदिन से देश भर में हिंदी पखवाड़े की शुरूआत होती है। हम सभी ने जगजीत सिंह की आवाज में अमर गीत ‘हम तो है परदेश में, देश में निकला होगा चांद‘ को जरूर सुना होगा। इस मधुर गीत को कलमबद्ध करने वाले डॉ.राही मासूम रजा जी ही थे। इस प्रसिद्ध गीत का भाव बोध हमारी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से प्रेम पर आधारित है। हम सभी अपनी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। बिना इसके मानव का अस्तित्व नहीं है।
हिंदी केवल एक भाषा-मात्र नहीं है वरन् यह सभी भारतीय भाषाओं, बोलियों का क्रियोलाइजेशन है।इससे सभी भारतीय प्रेम करते है। यह राजनीति, संस्कृति, समाज,लोक की भाषा है।इसीलिए यह लोकभाषा, संस्कृति की भाषा, संपर्क की भाषा, राष्ट्रभाषा से होते हुए राजभाषा के पद पर आसीन हुई और अब संचार की भाषा से तकनीक की भाषा के रूप में परिवर्तित होकर विश्व भाषा के रूप में उपस्थित है। वास्तव में हिंदी आमजन की भाषा है और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती देने के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी जन से जुड़े। व्यवस्था की सफलता भी आम जन की सफलता है। भारत का अधिकांश जनमानस उस हिंदी को समझता है जो संस्कृत एवं लोक भाषाओं पर आधारित है बस उसकी लिपि भिन्न होती है। हां कुछ अग्रेंजीदां लोगों की नजर में वह क्लिष्ट हिंदी कहलाती है। क्योंकि उनकी नजर में पिछले 70 सालों से स्वतंत्रता के बावजूद क्लिष्ट अंग्रेजी थोपने का उन्हें अधिकार है । क्लिष्ट भाषा नही क्लिष्ट एक बहाना है । अंग्रेजी चलाने का, अपनी भाषा को विकृत करने का। बंगाल में, उड़ीसा में लिखित शिक्षा से अनभिज्ञ आबादी भी परिष्कार जैसे शब्द से न केवल भिज्ञ है बल्कि दैनिक आधार पर प्रयोग भी करती है। पर कुछ के लिए यह शब्द कठिन है। ऐसे तमाम शब्द है । समस्या कठिन या सरल की नही बल्कि मानसिकता की है। समस्या आम जन या नेताओं की नहीं अंग्रेजी पिट्ठु धारी प्रशासनिक अधिकारियों की है जो हिंदी के सबसे बड़े स्टाॅपर है। जिससे हिंदी वहां पर बंध जा रही है। हिंदी को खुलने की जरूरत है। अपनी ताकत को हर स्तर पर पहचानने की जरूरत है । हिंदी की जरूरत सबको है। चाहे सरल हो सहज हो या क्लिष्ट । बस यह भारतीयता के करीब होनी चाहिए । इस देश में वहीं चलता है जो भारतीयता के करीब होता है । हिंदी भी इसीलिए चल रही है । क्योंकि हिंदी समन्वय की भाषा है। बस चलाने वाले इसे जान बूझकर समझते नहीं ।
कभी गौतम बुद्ध ने संस्कृत को छोङकर जनभाषा के नाम पर पाली का प्रयोग किया, कभी जैनियों ने प्राकृत, अपभ्रंश चलाई, फिर मुगल, तुर्क ने अरबी-फारसी चलाई, फिर अंग्रेजों ने अंग्रेजी चलाई। लोगों ने सब कुछ व्यवस्था के रूप में स्वीकारा। पर हिंदी स्वयमेव दिल से चल रही है। यह लोगों की मजबूरी नही बल्कि प्यार की पहचान है। यह समन्वय की भाषा है। अतः हिंदी को समृद्ध बनाएं।खाली-पीली नकारात्मक होने से क्या फायदा!
हां एक बात हम सभी को यह समझना होगा कि हिंदी केवल सरकारी प्रयासों से भारत की लिखित भाषा नहीं बनेखी। अपितु सामूहिक प्रयासों से बनेगी। जैसे एकमत से यह राजभाषा बनीं। महान लेखक कविवर हरिवंश राय बच्चन जी सरकारी प्रयासों पर कहते है- “डासत ही सब निशा बीत गई, कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो”।’
अतः यह कहा जा सकता है कि भाषाएं प्रकृति की जीवतंता के लिए प्राणतत्व है और हिंदी समावेशी, सर्वग्राही भारतीय समाज के लिए प्राणतत्व है ।
जय हिंद ! जय हिंदी !!