फ़िल्म – तान्हाजी “द अनसंग वारियर”
निर्देशक – ओम राउत
स्टार कास्ट – अजय देवगन, सैफ अली खान, काजोल, ल्यूक केनी एवं अन्य।
फ़िल्म तान्हाजी देखी। जबर्दस्त फिल्म, मज़ा आ गया। दिल – दिमाग ऊर्जा एवं उत्साह से भर गया।
जैसा की फ़िल्म की शुरुआत में पहले ही लिख कर आ जाता है, कि यह ऐतिहासिक घटना से प्रेरित फ़िल्म है, ना की विशुद्ध इतिहास ,और ना ही यह इस बात का ठेका लेती है । साथ ही फ़िल्म बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई को बढ़ावा देने का संदेश भी नही देती है। क्योंकि फ़िल्म जिस टाइम पीरियड पर बेस्ड है, उस वक़्त भारत में बाल विवाह का चलन चरम पर था। जिस बाबत तान्हाजी के सुपुत्र राघोबा की शादी फ़िल्म का एक हिस्सा है, जिसमे राघोबा 21 वर्ष के नही है। बल्कि छोटे बच्चे हैं।
दूसरी प्रमुख बात, फ़िल्म की स्क्रिप्ट जिस तरह तोड़ी मरोड़ी गई है, वह दर्शकों के अंदर जोश तो भर देगी, परन्तु इतिहासकारों एवं जानकारों का मन असंतुष्टि से भर सकता है । क्योंकि फ़िल्म निर्देशक ने सिनेमाई लिबर्टी का खुले हाथ से फ़ायदा उठाया है। इसलिए दर्शकों को इस फ़िल्म को अपने वैचारिक एवं समझदारी के स्तर पर देखना चाहिए। क्योंकि हो सकता है कुछ लोग इस फ़िल्म को विशुद्ध इतिहास मान लें और अपने ऐतिहासिक ज्ञान का डंका पीटने लग पड़ें।
फ़िल्म मनोरंजन तो प्रदान करती है, साथ ही मातृभूमि से प्रेम, ऊर्जा, उत्साह, छत्रपति शिवाजी राजे की स्वराज की परिकल्पना , मराठाओं की शूर वीरता के विषयों पर प्रकाश डालती है।
फिल्म की शुरूआत में , तान्हाजी के पिता की मृत्यु हो जाती है। उस वक़्त वे काफी छोटे रहते है। मिर्ज़ा राजा जयसिंह के साथ शिवाजी महाराज के द्वारा की गई ” पुरन्दर की संधि ” के उपरांत उन्हें 23 किलों से हाथ धोना पड़ गया था।
उन्ही सारे किलों में से सिंहगढ़ “कोंढाणा” का किला भी शामिल था।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक ” सह्याद्री की चट्टानें ” छत्रपति शिवाजी राजे एवं तान्हजी पर ही आधारित है और मेरी पसंदीदा पुस्तकों में से एक है। उसे पढ़कर और फ़िल्म देख कर दोनों के बीच का जमीन आसमान का अंतर समझ में आया। बहुत सम्भव है कि आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी का उपन्यास भी विशुद्ध ऐतिहासिक दस्तावेज ना हो, सभी ने अपनी कल्पना के आधार पर घटनाओं का निर्माण कर उसका उल्लेख किया है। परन्तु आचार्य की वह पुस्तक सर्वोत्तम कृति है, जिसे पढ़ना चाहिए। उसमे उन्होंने शिवाजी महाराज के शासन काल के उदय से लेकर तान्हाजी के जीवन काल तक का विस्तृत वर्णन किया है। जो कि इतिहास समझने वालों के लिए आवश्यक स्थान रखता है।
फ़िल्म के विषय में बात की जाय तो यह सिर्फ और सिर्फ कोंढाना ( सिंहगढ़ ) के युद्ध पर ही बनाई गई है। फिल्म की लंबाई लगभग 2 घण्टे की है।
फ़िल्म भारतीय सिनेमा जगत के इतिहास में एक खूबसूरत एवं महत्वपूर्ण कड़ी जोड़ने का कार्य करती है। यह फ़िल्म अभिनेता अजय देवगन की 100 वीं फिल्म है, और उन्होंने अपनी पूरी टीम के साथ फ़िल्म के निर्माण में काफी मेहनत की है, जिसका असर फ़िल्म में हमे देखने को मिलता है। फ़िल्म निर्देशन, अभिनय, विजुअल एवं स्पेशल इफ़ेक्ट्स, संगीत, सिनेमेटोग्राफी आदि विभाग में अपना लोहा मनवाती हुई दिखती है। सभी क्षेत्रों में निष्ठा एवं लगन के साथ काम किया गया है, जिसके परिणाम स्वरूप इस फ़िल्म का निर्माण हुआ है।
फ़िल्म की शुरुआत संजय मिश्रा के वॉइस ओवर के साथ होती है। संजय मिश्रा की आवाज को फ़िल्म के सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत करने से ही फ़िल्म अपने तारतम्य में मंझी हुई दिखने लगती है। 3डी एनिमेशन का प्रभाव फ़िल्म पर अपना सुंदर प्रभाव बिखेरने लगता है, बैकग्राउंड संगीत इतना प्रभावी है कि दर्शकों को उनकी सीट तक से हिलने तक नही देता। फ़िल्म के एक्शन सीन्स फ़िल्म की और अधिक प्रभावशाली बनाते हैं। जो रहस्य एवं रोमांच से परिपूर्ण माहौल का निर्माण करते हैं।
फ़िल्म मराठा शूरवीरो की वीरता, अदम्य साहस से लेकर तत्कालीन मुगलिया सल्तनत की चूलें हिला देने वाले छत्रपति शिवराय के शौर्य एवं मराठाओं के मन में उनके हृदय में असीम स्नेह सम्मान को प्रदर्शित एवं परिभाषित करती है। राजे को लोग भगवान मानते हैं, और उनके कहने मात्र पर जान देने तक के लिए तैयार रहते हैं। जबकि उनके पूर्व किसी ने ऐसा चमत्कारिक परिवर्तन उस वक़्त नही किया था।
यह फ़िल्म इतनी कसी हुई है,जो जल्दी – जल्दी अपने पथ पर भागती नज़र आती हैं ।
फ़िल्म के निर्देशक ओम राउत जी को बधाई ,कि उन्होंने इतनी बढ़िया फ़िल्म का निर्देशन किया एवं दर्शकों का मनोरंजन क़िया। फ़िल्म आनन्दित कर देती है, ऊर्जा एवं उत्साह से लबरेज कर देती है, और साथ ही तान्हाजी मलूसरे जैसे वीर योद्धा के किरदार के साथ न्याय करती है।
अभिनय के क्षेत्र में बात की जाय तो, सबसे प्रथम मुझे सैफ अली खान के अभिनय ने बेहद प्रभावित किया। उन्होंने उदयभानु के किरदार को पी लिया हो ऐसा पर्दे पर प्रतीत होता है। उनके किरदार से दर्शक नफ़रत तो करने लग जाते हैं, परन्तु उनके किरदार में छोटे – छोटे हास्य के पुट के संतुलित मिलावट के साथ वे उनके किरदार से जुड़ने लगते हैं। उसका आनन्द उठाने लगते हैं।
अजय देवगन ने अपने सिंघम की एक्टिंग वाले वाले फॉर्मेट को इस फिल्म में भी बरकरार रखा है। उनकी एक्टिंग में सबसे बड़ा योगदान उनकी क़ातिलाना आँखों का रहता है, जिसका इस बार भी उन्होंने जबर्दस्त फायदा उठाया।
काजोल के पास कम सीन है। पर सभी में उन्होंने बेहतरीन परफॉर्मेस दी है।
छत्रपति शिवाजी के किरदार में शरद केलकर की आवाज़ के अलावा, मैं बहुत अधिक प्रभावित नही हो सका। प्रथम तो शिवाजी महाराज के जीवन पर अधिक प्रकाश नही डाला गया। जो दर्शक इस उम्मीद के साथ फ़िल्म देखने जायेंगे वे निराश ही होंगे। दूजा शरद केलकर एक आला दर्जे के कलाकार है, उनके शिवाजी राजे के किरदार को काफी लोगो ने सराहा परन्तु मुझे खास पसन्द नही आया। उनका डील डौल, उनके हाव भाव राजे के किरदार के लिए प्रभावी नही लगे मुझे।
ल्यूक केनी बेहतरीन अभिनेता है, परन्तु औरंगजेब के किरदार में वे ज़ालिम तो दिखते है, पर औरंगज़ेब की तरह नही दिखते। इसलिये उनके किरदार के साथ जुड़ाव हो नही पाता। परन्तु अभिनेता ने कोई कसर नही छोड़ी है।
अन्य सहकलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है।
स्क्रिप्ट प्रकाश कपाड़िया एवं फिल्म के निर्देशक ओम राउत ने लिखी है जिसके विषय में जिक्र किया जा चुका है।
सिनेमेटोग्राफी के बेमिसाल उदाहरण है फिल्म तान्हाजी। और इसके कर्ता धर्ता हैं केइको नाकाहार। भारतीय सिने जगत के इस दौर में, इस फिल्म की सिनेमेटोग्राफी की मिसालें दी जाएंगी।
गीत – संगीत की बात की जाए, तो फिल्म का संगीत जबर्दस्त है। अजय अतुल की जोड़ी ने फिर कमाल का काम किया है। परन्तु फ़िल्म के बीच में शंकरा- शंकरा गाना बेमतलब का लगता है। गाना तो दमदार है, परन्तु यह फ़िल्म की गति को भी धीमा करने के साथ साथ ऊल जुलूल से डांस फ़ॉर्म का बेहूदा प्रदर्शन करता है।
अंत में यही कहना चाहूँगा, कि फिल्म 3डी में ही देखना चाहिए। क्योंकि 2डी में इस तरह फ़िल्म देखने का वो आनन्द नही मिल सकेगा। फ़िल्म जरूर देखें, अपने बच्चो को भी यह फ़िल्म अवश्य दिखाएँ। मातृभूमि के प्रेम में मतवाले मराठा शूरवीरों की यह अमर गाथा है, फ़िल्म तान्हाजी।