सफर में हम निकले है
बहुत दिनों के बाद।
छुट गई है अब आदत
लोकल में चलने की।
पहले ही जिंदगी की
आधी उम्र निकल दिये है।
मुंबई की लोकल ट्रेन में
हम चल चल कर।।
कैसे किया जिंदगी को बेहाल
घर से काम करके।
मानो धरा ठहर सी गई हो
ऐसा लगने लगा घर बैठकर।
सुबह से लेकर रात तक
बन गया कंपनी का नौकर।
और सब कुछ मिलने लगा
घर पर ही बैठकर।।
तंग आ गया हूँ अब मैं
घर की चार दिवारी देखकर।
बैठा रहता हूँ दिन रात
एक कमरे में अकेला।
जिससे आलसी हो गया और
आनेजाने से कतरानी लगा।
जिससे एकाकीपन आ गया
अब मेरे जीवन में।।
रिश्ते सम्पर्क टूट गये
मिलने जुलने के बिना।
बातचीत भी टूट गई
अपनी व्यस्ता के चलते।
चौबीस घंटे के नौकर
हम जो बन गये।
कुल मिलाकर देखे तो
जिंदगी हमारी बदल गई।।