हूँ बहुत टूटा हुआ, बिखरा हुआ घायल निराश
मरु में एक भटके पथिक-सा, दिग्भ्रमित- सा हताश
प्रेम को प्यासा ह्रदय, व्याकुल स्वभाव ठिठोल को
अपनत्व को आकुल है मन, जीवन दो मृदुबोल को
बोल जिनको सुनकर मेरा, नयन नीर भी मुस्कुराये
आज फिर उस नेह से तू नाम मेरा टेर माँ।
छोड़ आया बहुत दूर उद्दण्ड, चंचल, और मधुर बचपन
जग की बाधाओं में उलझा है मेरा अभिशप्त यौवन
गोद में तेरी रखे सिर, कितने युग जाने बीत गये
कितने युग से किया नहीं माँ तेरे आँचल में क्रंदन
पीर जब तक बह न जाये, आंसुओं में मन की सारी
तब तक आँचल में छुपा ले, हो जाये कितनी देर माँ।
पीर जो शैशव में मुझको देता था मुझको दंड तेरा
सोच अब बातें पुरानी मेरे मुस्कुरा देते अधर।
बाद में दुःख से तेरे भी नम नयन हो जाते थे
आज यादकर बातें सुहानी भरभर आती है नज़र
उम्रभर हँसता रहे हर रक्त बिंदु मेरे तन का मईया
इतनी ममता से सरोवर “दीपक” को कर इस बेर माँ ।