river

कुछ खोता हूँ कुछ पाने को
कुछ खाता हूँ जीने को।
पर क्यों नहीं बच पाता
हे मानव तू अपने कर्मो से।
दान दया धर्म आदि भी तू
आज कल बहुत कर रहा।
पर वर्षो से जो कर रहा था
उसका फल भी तो मिलेगा।।

बैर भाव मन में जो तूने
अपनों के प्रति जो रखा है।
मातपिता भाई-बहिन और
चाचा-चाची से मुँह मोड़ा है।
घर में तू है क्या और
बहार क्या बन बैठा है।
पर देख रहा है तुझको वो
जिसने तुझे मानव बनाया है।।

समझ नहीं पाया है अभी
हे अज्ञानी मानव तू उसको।
सब कुछ देकर भी तुझको
उसने सब कुछ तुझसे छिना है।
धन दौलत से बढ़कर होती
मातपिता और परिवार की सेवा।
इसलिए तू ऊपर ऊपर हँसता है
पर अंदर ही अंदर रोता है।।

जग वाले तेरा जयकारा करते
बाहरी तेरी दिखावट पर।
जबकि तुझे पता है की तू
कैसा मेहसूस कर रहा है।
इस माया के कारण ही तो
तेरी मती बदल गई है।
अब भी वक्त बचा है मानव
सुधार ले तू अपनी गलतीयाँ।।

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