इस चित्र को जल्दबाजी में तुलना मत समझ लीजियेगा। सालों बाद फिजां में सुरों की नई बयार चली है। जिसका जिक्र और स्वागत जरूरी है। तकरीबन चालीस साल से बिहार ही नहीं बल्कि देश, दुनिया में शारदा सिन्हा के सुर और संगीत के बगैर पूर्वांचली लोकपर्व के रीति रिवाजों का रस्म पूरा नहीं होता याकि उसकी रौनक नजर नहीं आती। ऐसा सालों साल तक आगे होता भी रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं। इसके पीछे शारदा जी के त्याग और मेहनत की अपनी जो कहानी है, वह किसी भी डेडिकेटेड कलाकार के लिए एक सक्सेस स्टोरी का बेहतरीन उदाहरण है। शारदा सिन्हा के अतिरिक्त आज तक लोकपर्व को इतनी संजीदगी से सुरों में प्रस्तुत करने का ऐसा सलीका बहुत कम नजर आया। बहुत से नकलची कलाकारों ने जल्दबाजी में अपनी अस्थिरता का परिचय दिया और फिर हवा के झोंके की तरह गुम हो गये। इसी बीच मालिनी जी आईं जिन्होंने लोकगीतों को एक नया सौंदर्य प्रदान किया और अपनी सी ऊंचाई दी।
लेकिन इन दिनों एक नई कलाकार मैथिली ठाकुर के सुरों की अनुगूंजें फिजां में फिर से उसी तरह लहर बिखेर रहीं हैं जैसा कभी शारदा सिन्हा जी के प्रारंभिक ज़माने में नजर आती थीं। हां, यह सही है कि शारदा सिन्हा ने उस ज़माने में जिस सामाजिक चुनौतियों से लोहा लेते हुए गीत संगीत की दुनिया में अपनी पताका लहराई, वो सामाजिक चुनौतियां मैथिली ठाकुर के सामने नहीं हैं। शारदा सिन्हा जी के संगीत और सुर का आधार जन और ज़मीन है। उन्होंने फुटपाथ और गली मुहल्लों में बिखरे सुरों को सहेजा है। गीतों को संजोया है, उसे आर्काइवल बनाया है, यह एक क्रांतिकारी पहल थी। कोई हैरत नहीं कि उन्हीं के आर्काइव किये लोकगीतों को नये लोक कलाकार आज गाते हैं लेकिन अपना सा सुर नहीं देने के चलते विलीन हो जाते हैं। पहचान नहीं बन पाती। कैसा संयोग है कि शारदा सिन्हा जी जिस इलाके सुपौल से आती हैं उसी इलाके मधुबनी के पास से मैथिली ठाकुर भी आती हैं-दोनों इलाके में भौगोलिक-सांस्कृतिक तौर पर अंतर नहीं है। और मुझे यह बताने में कोई गुरेज नहीं कि शारदा जी को अब उनका उत्तराधिकार उन्हीं के इलाके में मिला – जिसका नाम है मैथिली ठाकुर। जाहिर है शारदा सिन्हा जैसी ऊंचाई हासिल करने में मैथिली को अभी बहुत मेहनत करने की जरूरत है, खासतौर पर अपनी पहचान को शारदा जी की तरह कालजयी बनाने के लिए उसे या उसकी टीम को गीत संगीत का अपना रीसर्च और आर्काइव तैयार करना होगा, जो आगे चलकर उसके नाम से जाना जाये। मैने सुना है मैथिली के परिवार में गीत संगीत की अपनी परंपरा रही है। पिता, माता, दादा जी सब संगीत से संबद्ध रहे हैं। सालों बाद उस परिवार की साधना को मुख्यघारा की लोकप्रियता मिली है। मैथिली की प्रस्तुति में मोहकता और सरलता उसकी यूएसपी है। क्लासिक आधार उसका धैर्य और संगत उसकी विरासत है। दोनों मासूम भाई जब दोनों तरफ संगत में बैठते हैं जो मोहकता और भी मधुर हो जाती है। मैथिली की सादगी और सहजता क्लासिकल को बोझिल नहीं होने देती बल्कि सरल बनाती है। यह उसकी अपनी पहल है। लेकिन इन सबके अलावा एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि मैथिली आज के उन गायकों के लिए एक बड़ा सबक है, जिनकी आवाज का अहसास ऑर्केस्ट्रा के इंस्ट्रूमेंटल हंगामे में होता ही नहीं। ऐसे में महज हारमोनियम और तबला के ऑर्केस्ट्रा की बदौलत उसने जो उपस्थिति दर्ज कराई है वह होनहार बिरवान के चिकने पात की तरह है। वास्तव में जिनके पास आवाज़ और सुर हो उसे ऑर्केस्ट्रा और ज्यादा इंस्ट्रूमेंट की जरूरत नहीं होती। शारदा सिन्हा जी के गीत संगीत में यही खासियत रही कि उन्होंने अपनी आवाज़ और अंदाज को ऑर्केस्ट्रा और इंस्ट्रूमेंट्स से दबने नहीं दिया बल्कि उसकी अधिक दरकार नही समझी। बाद में संगीतकारों ने भी उस खूबी को पहचाना और उस गरिमा को बनाये रखा।