अनुवाद किसी सीमा और देश तक सीमित नहीं हैं, उसकी महत्ता पूरे विश्वा में फैल चुकी है। भाषिक व्यापार के रूप में अनुवाद भारतीय परंपरा की द्रष्टि से कोई नई बात नहीं है। अनुवाद शब्द का संबंध ‘वद’ धातु से है। इसमें ‘अनु’ प्रत्यय लगने से अनुवाद बना है और इसका मूल अर्थ है किसी के कहने के बाद कहना अथवा पुनः कथन। कहा जा सकता है की एक भाषा में प्राप्त सामग्री को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का सफल प्रयास ही अनुवाद होता है, जिसमें स्रोत भाषा के भाव ज्यादा से ज्यादा अपेक्षित हों। कभी-कभी कथ्य और कथन पद्धति की समानता का ध्यान रखने के चक्कर मे अनुवाद उपहास के योग्य भी बन जाता है।
मूल भाषा के अर्थ को पूर्ण रूप से आत्मसात करने के बाद ही अनुवाद करने की चेष्टा करनी चाहिए अन्यथा अर्थ का अनर्थ ही हिस्से में आयेगा। विश्व स्तर पर अनुवाद जैसी विधा की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, जो अलग अलग भाषाओं में रचित साहित्य को सर्वसुलभ और साहित्य प्रेमियों तक पहुँचाने में मदद की है। विभिन्न देशों की सांस्कृतिक परंपराओं के आदान-प्रदान का मसला हो या फिर कोई विज्ञान और तकनीकी संबंधी जानकारी को साझा करने की बात हो अनुवाद की आवश्यकता महसूस होती ही है। यदि अपने देश में ही देखें तो अनुवाद की भूमिका स्पष्ट हो जाती है। भारत में अनेकों भाषाएँ (कश्मीरी, हिंदी, पंजाबी, उर्दू, असामिया, कन्नड, गुजरती, तमिल, बंगाली, मराठी एवं अन्य ) बोली जाती हैं और हर भाषा का ज्ञान हर व्यक्ति को हो, यह संभव नहीं हो सकता इस कारण उसे अनुवाद का सहारा लेना ही होगा। अनुवाद ही एकमात्र प्रकल्प है जो समाज के विभिन्न वर्गों तक अधिक से अधिक बातों को संप्रेषित कर सकता है। वर्तमान समय मे अनुवाद की उपयोगिता को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
साहित्य में रांगेय राघव, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल , प्रेमचंद, दिनकर आदि सफल व सुप्रसिद्ध लेखकों ने साहित्य की बहुत सी रचनाओं का अनुवाद किया है, जिन पर आधारित फिल्मों और धारावाहिकों का प्रसारण दूरदर्शन पर हुआ है।
हमारे भारतीय साहित्य में रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों और उपन्यासों का, कहानियों की कथाओं का जो फिल्मीकरण और दूरदर्शनीकरण हुआ है वह अनुवाद ही है। वैसे तो अनुवाद कई तरह से किए जाते हैं जैसे मूलनिष्ट अनुवाद, शब्दानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, सरानुवाद, रूपान्तरण और व्याख्यानुवाद आदि। लेकिन जब बात सिनेमा में अनुवाद की आती है तो शब्दों को दृश्य में अनुवादित करके उद्देश्य की अभिव्यक्ति को अंतर प्रतिकात्मक अनुवाद कहा जाएगा। अनुवाद की इस प्रक्रिया को रूस के सुविख्यात विद्वान रोमन जकोब्सोन ने अपनी पुस्तक में व्यापक संदर्भ में परिभाषित किया है।
In his essay “On Linguistic Aspects of Translation” Roman Jakobson arrived at three kinds of Translation are to be differently laleled:
- Intralingual Translation or rewording is an interpretation of verbal sings by means of other signs of the same language.
- Interlingual Translation or translation proper is an interpretation of verbal sings by means of some other language.
- Intersemiotic Translation or transmutation is an interpretation of verbal signs by means of signs of nonverbal sign systems.
“Roman Jakobson’s famous categorisation of intersemiotic trans।ation as a trans।ation between two sign systems has ।ed to various specu।ations on what the nature of the exchange invo।ved is and whether it fo।।ows exactness. The question has moved beyond what is ।ost to consider that a।so which is gained in such a trans।ation. The screen adaptation of ।iterary works provides cinema not on।y with new texts, but with new norms and mode।s that redefine cinematic codes. R. Barton Pa।mer in „The Socio।ogica। Turn of Adaptation Studies: The Examp।e of Fi।m Noir‟, points out, “In fact, from a transtextua। viewpoint, the fi।mic adaptation of ।iterary texts is especia।।y interesting since the borders transgressed invo।ve divergent signifying systems and practices. Fi।mic adaptation, to describe it in terms of structura।ist theory, is inter- (not intra-) semiotic.” (259). The method is to ।ook for corresponding units in the two sign systems, considering the ramifications of their signification. Due to this, cinema is a।so ab।e to incorporate a study of representation and ideo।ogies. Out।ining the theoretica। postu।ations on these deve।opments, it is in the ।ight of such transference and a।ternative-discourse construction that the present paper sha।। ।ook at Gurinder Chadha‟s adapted fi।m Bride and Prejudice (2004).2”
सिनेमा की भाषा की संरचना :-
साहित्य और सिनेमा दोनों अलग अलग विधाएँ हैं। दोनों की भाषागत विशेषताएँ और प्रासंगिकता के लिए फ़िल्मकार अपने स्तर पर आवश्यक बदलाव करता है। प्रतिमा या छाया (प्रतिबिंब) को सिनेमाई भाषा का प्राण तत्व माना जाता है। क्रिश्चयन मेत्ज ने एक छवि को दूसरी छवि तक जाने की प्रक्रिया को ही छवि से भाषा तक पहुँचने की प्रक्रिया माना है। मेत्ज का प्रयास रहा है कि सिनेमाई भाषा को सामान्य बोलचाल की भाषा माना जाए। इसमे दृश्यों (चित्रों) और प्रतिकों के माध्यम से जो बात कही जाती है वह कभी-कभी शब्दों के द्वारा कहना मुश्किल सा हो जाता है। क्योंकि चित्रों में गतिशीलता होने के कारण दर्शकों को ज्यादा जल्दी प्रभावित किया जा सकता है। यही गति दृश्य भाषा का निर्माण करते हैं। अतः सिनेमाई भाषा और साहित्य की भाषा नितांत भिन्न हैं, जिनकी तुलना आपस में नहीं की जा सकती। मेत्ज के अनुसार जहाँ पर सामान्य भाषा व्यवस्था की चरम सीमा पूरी होती है, वहाँ से सिनेमाई भाषा के रूप की सीमा आरंभ होती है क्योंकि फिल्म निर्माता का प्रारम्भिक बिंदु ही वाक्य से आरंभ होता है। हम यदि किसी वस्तु का नाम लें तो उसकी कल्पना हमारे मन में स्वतः ही आ जाती है जो सभी की भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। जैसे: कार, यह नाम पढ़ते ही पाठकों के मन में अलग अलग तस्वीर बन आती है जो अपने अपने अनुभवों के आधार पर हो सकती है और यह तब तक हो सकता है जब तक कार के आकार को स्पष्ट न किया जाए। सिनेमा की भाषा भी संकेतों, प्रतिकों, बिंबों आदि से ही पूर्ण होती है कह सकते हैं की यह संकेतित भाषा है जो सिनेमाई भाषा में मुखरित होते हैं।
शब्द और दृश्य संबंध :-
शब्द और दृश्य दोनों ही माध्यमों के द्वारा भावों को भिन्न प्रकार से अभिव्यक्त किया जाता हैं। शब्द भाषा का एक हिस्सा है और हर भाषा कि एक व्याकरणिक व्यवस्था होती है जो भाषा के व्यवहार को समझाने मे सहायक होती है। इसी प्रकार दृश्य माध्यमों कि भी अपनी एक सहज बुनावट है, जो इसके मिज़ाज को समझने के लिए जरूरी है। साहित्यिक कृतियों पर जहाँ चित्र बनाए गए वहीं रवीन्द्रनाथ टैगोर, कमलेश्वर, प्रेमचंद, जे.के.रोलिंग, गुलज़ार आदि विश्वस्तरीय प्रसिद्ध रचनाकारों कि कृतियों फिल्मीकरण होता रहा है। शब्दों को सिनेमाई दृश्यों मे परिवर्तित या अनुवादित करके अभिव्यक्ति की इस परंपरा पर बहुत से साहित्यकारों ने अपने मत दिए।
सत्यजित राय ने प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) का फिल्मीकरण किया तब साहित्यकारों ने इस पर काफी चर्चा की। इसी प्रकार पूस की रात/ कफन/आँधी गुलजार साहब द्वारा निर्देशित फिल्में हैं, जिनमें भाषा का सिनेमाई दृश्यों में अनुवाद बहुत ही प्रतिकात्मक ढंग से किया गया। दृश्य सिनेमाई भाषा की आत्मा माना जाता है और ध्वनि भाषा की प्राण तत्व होती है। अतः सिनेमा की भाषा की अभिव्यक्ति को समझने के लिए दृश्यों पर आश्रित रहना और उन्हें समझना जरूरी है साथ ही चित्र और ध्वनि को भी समझने के लिए मूल रचना को जानना होगा। अभिव्यक्ति के अनेकों भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भाव संकेत होते हैं, जिनका प्रयोग अनेक बिंबों द्वारा किया जाता है। मनुष्य दृश्य के प्रति ज्यादा जल्दी आकर्षित हो जाता है यह एक स्वाभाविक चेष्टा है इस प्रकार शब्द संकेतों और प्रतिकों से जुड़ कर और अधिक सार्थकता ग्रहण करते हैं और दर्शकों के अन्तर्मन को बहुत ही सरलता से छु लेते हैं।
उपर्युक्त विश्लेषण को देखकर कहा जा सकता है कि शब्द को दृश्य में अनुवाद करने के लिए विभिन्न घटकों का सहारा लेना पड़ता है। अतः अंतर प्रतिकात्मक अनुवाद करते समय इन सभी बातों का विशेष रूप से संयोजन करना होगा।