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“जंगलों में जब टेशु खिलता है। महुआ गदराता है। ताड़ी शबाब पर आती हैं। हवाओं में हल्की-हल्की रोमांच भरने वाली ऊष्मा भरने लगती है, तब फाल्गुन आता है और तब भगोरिया आता है।”

भगोरिया पर्व लोक संस्कृति के पारंपरिक लोकगीतों के माहौल में एक-एक संस्कृति का प्रतीक है, जो कई रंगों को अपने अंदर समेटे हुआ है। साथ ही प्रकृति और संस्कृति का संगम हरे-भरे पेड़ों से निखर जाता हैं।
प्रकृति, संस्कृति, उमंग, उत्साह से भरा यह त्यौहार संस्कृति की गरिमा में वासंती छटा का एक ऐसा रंग भरता है कि देश से ही नहीं अपितु विदेशो से भी इस पर्व को देखने विदेशी लोग कई क्षेत्रों से आते है। इनके रहने और ठहरने के लिए प्रशासन द्वारा कैंप लगाए जाते है।

झाबुआ, बड़वानी, अलीराजपुर, खरगोन आदि जिलों के गावों में भगोरिया पर्व लोकगीतों एवं नृत्य से अपनी संस्कृति को विलुप्त होने से बचाते आ रहे हैं। इसका हमें गर्व करना चाहिए।
यह फागुन माह में मालवा-निमाड़ क्षेत्रों के भिलो को यह प्रिय उत्सव है। भगोरिया पर्व की एक विशेष बात यह है कि इस पर्व में आदिवासी युवक-युवतियाँ को अपने जीवन साथी का चुनाव करने का मौका मिलता है। होलिका दहन से सात दिन पूर्व शुरू होने वाले इस भगोरिया पर्व में युवा वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती हैं।

यह पर्व युवा वर्ग के आसपास ही केन्द्रित रहता है। इन दिनों इच्छा रहती कि खिड़की से चिपक कर बैठ जाएं व टेशू से भरे पेड़ो को अपनी आंखो में बसा ले। बस इसी मौसम में प्रेम का गंद आदिवासी समाज में निर्णायक बिंदु पर पहुंचता है। आदिवासी अपने साथियों को लेकर प्रेम पक्ष में चल पड़ता है। इसी माहौल में एक-दूसरे को चाहने लगते है। इस आदिवासी समाज का हल बना यह भगोरिया पर्व, जिसमें युवक-युवतियों को अपने जीवन साथी का चुनाव करने का अवसर मिलता है।

इन दिन अविवाहित युवक-युवतियाँ हाथ में गुलाल लेकर निकलते हैं। कोई युवक जब अपनी पसंद की युवती के माथे पर गुलाल लगा देता है और लडकी बदले में गुलाल लड़के के माथे पर लगा देती है, तो यह समझा जाता हैं कि दोनों एक-दूसरे को जीवन साथी बनाना चाहते हैं। पूर्व स्वीकृति की मोहर लग जाती हैं। जब लड़की-लड़के के हाथ से माजुन (गुड़ और भांग) खा लेती है, और यदि लड़की को रिश्ता मंजूर नहीं होता तो वह लड़के के माथे पर गुलाल नहीं लगाती हैं।

भगोरिया हाट के दिन क्षेत्र भर के आसपास के गावों के किसान, भिल आदिवासी सज-धज कर तीर तलवार लेकर हाट वाले गाव में पहुंचते हैं। वहां मैदान में वे लोग डेरा लगाते हैं। हाट के दिन बुजुर्ग डेरो में रहते हैं, लेकिन अविवाहित युवक-युवतियाँ हाथ में गुलाल लेकर निकल जाते है। भगोरिया पर्व का बढ़े-बूढ़े सभी आंनद लेते है। भगोरिया हाट में प्रशासन की भी व्यवस्था रहती हैं। हाट में जगह-जगह ढोल की थाप और मांदल की गूंज सुनाई देती है और बासुरी, घुंघुरुओ की ध्वनि सुनाई देती हैं। यह दृश्य में। एक अलग चुम्बकीय आकर्षण का माहौल पैदा करता है जो संस्कृति की अलग छाप छोड़ता है।
ढ़ोल वजन में भारी तथा काफी बड़ा होता है जिसे बजाने में महारत हासिल हो वही नृत्य के घेरे के मध्य में खड़ा होकर बजाता है।

भगोरिया पर्व पर उपयुक्त स्थान पर जहां हाट लगता है। वहां पर ज्यादा संख्या में खाने पीने की चीजों की दुकानें, खिलौने, चूड़ियाँ, बिंदिया की दुकानें देखने को मिलती हैं। छाव की बेहतर व्यवस्था होती है। पीने के पानी की सुविधा, झूले आदि की अनिवार्यता को पंचायत द्वारा लगाने की व्यवस्था होती हैं। ताकि मनोरंजन के साथ लोक संस्कृति का भी आनंद ले सके। इसमें व्यापारी अपने – अपने ढंग से खाने की चीजें गुड़ की जलेबी, भजिए, खारिए (सेव), हार, कंगन (शक्कर के बने हुए), पान, कुल्फी, केले, संतरा, ताड़ी बेचते हैं। साथ में झूले वाले, गोंदने वाले (टैटू) अपने व्यवसाय करने में जुट जाते है।

सभी लोग ट्रक, बैलगाड़ी दुपहिया वाहन पर दूर गांव के रहने वाले लोग इस हाट (भगोरिया) में सज धज के जाते है। कई नौजवान युवक-युवतियाँ  झुंड बनाकर पैदल भी जाते है। भगोरिया पर्व में एक से रंग की वेश-भूषा, नख से शिखर तक पहने वाले चांदी के आभूषण, पावों में घुंघरू, हाथो में रंगीन रुमाल लिए गोल घेरा बनाकर ढोल, मांदल की थाप पर बेहद सुंदर नृत्य करते हैं।

भगोरिया के दिन सुबह से शाम तक ढोल-मांदल की थाप और थाली की खनक पर आदिवासी कुरार्टे की आवाज गूंजती रहती हैं। भगोरिया की शुरुआत के साथ ही लोक संस्कृति अपने पूर्ण रूप में गुलजार होती हुई नजर आती हैं। ढ़ोल मांदल की धुन, थाली की खनक पर पेंट-शर्ट पहने और काला चश्मा लगाए युवा और साड़ी पहनी युवतियाँ जबरदस्त नृत्य करती है।
दिन के चढ़ने के साथ ही भगोरिया की मस्ती परवान चढ़ती है। युवक-युवतियाँ  पान खिलाते नजर आते है, तो कही युवतियाँ खुद ही पान खरीदती हुई दिखाई देती हैं।

बच्चे झूले, चकरी का जमकर लुफ्त उठाते है, तो इसमें बड़े भी नजर आते है। युवाओं के पहनावे पर अब लोक संस्कृति के साथ आज की फैशन का भी रंग
चढ़ते हुए दिखाई देता है, तो सेल्फी लेते हुए भी दिखाई देते हैं। कई युवक-युवतियों की अल्हड़ मस्ती और कुरार्ट से लगता है । मानो अब भी उन्होंने परम्परा को बिसराय नहीं है।

निमाड़ में आदिवासियों के भगोरिया पर्व की धूम शुरू हो गई। सोमवार को पहले दिन सज-धजकर मेले में पहुंची। पारंपरिक मांदल ढोल पर सभी ने खूब आंनद उठाया, तो कही यह आदिवासी परंपरा से भरा रहने वाला प्रणय पर्व इस बार बहुत फिका था।
कोरोना के बीच हो रहे इस मेले में मास्क और सोशल डस्टेंसिंग गायब थी। इसको लेकर पुलिस और प्रशासन के अधिकारी भी लापरवाह नजर आए, तो कही पर हाट बाजार में मनोरंजन के साधन तो नजर आए लेकिन एक भी मांदल नजर नहीं आईं। वहीं कोरोना बीमारी के प्रति गम्भीरता नजर नहीं आई।
जनता अभी भी लापरवाही से बिना मास्क और सामाजिक दूरी को नजर अंदाज करती हुई स्वच्छंद विचरण करती नजर आ रही हैं। दुकानदार भी कोरोना गाइड लाइन का पालन करते नजर नहीं आ रहे।

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